Book Title: Vasudevhindi Bharatiya Jivan Aur Sanskruti Ki Bruhat Katha
Author(s): Shreeranjan Suridevi
Publisher: Prakrit Jainshastra aur Ahimsa Shodh Samsthan
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वसुदेवहिण्डी : भारतीय जीवन और संस्कृति की बृहत्कथा परम्परानुसार, राजा अन्तिम समय में अपने पुत्र को राज्य-संचालन का भार सौंपकर प्रवजित हो जाते थे।
उस समय, दो प्रतिपक्षी राजा युद्धभूमि में पारस्परिक पूर्व-सम्बन्ध का ज्ञान हो आने या मैत्रीभाव के उदय हो आने की स्थिति में, जब मिलते थे, तब शस्त्र का त्याग कर देते थे। रोहिणी के स्वयंवर के समय जब वसुदेव और उनके ज्येष्ठ भ्राता समुद्रविजय युद्धोद्यत हुए थे, तभी दोनों को पारस्परिक सम्बन्ध का ज्ञान हो आया था और वे दोनों शस्त्ररहित होकर एक दूसरे के पास आये थे और आपस में गले-गले मिले थे (रोहिणीलम्भ : पृ. ३६५) । तत्कालीन युद्ध में बन्दी शत्रुओं को विजयी राजा के सेनापति के जिम्मे सौंप दिया जाता था। अपने ससुर अभग्नसेन की ओर से लड़ते हुए वसुदेव ने श्वशुर के अनुज मेघसेन को बन्दी बनाकर उसे विजयी ससुर के सेनापति को सौंप दिया था (पद्मालम्भ : पृ. २०३)।
संघदासगणी ने लिखा है कि उस युग में पुरोहित का राजा पर बड़ा गहरा प्रभाव रहता था। चक्रवर्ती राजा महापद्म का पुरोहित नमुचि नाम का था। वह एक बार जैन साधुओं से शास्त्रार्थ में हार गया। प्रतिक्रियावश उसने राजा को फुसलाकर उससे राजगद्दी हथिया ली और शास्त्रार्थजयी जैन साधुओं को निर्वासित कर देने की आज्ञा प्रचारित की (गन्धर्वदत्तालम्भ : पृ. १२८)।
. तत्कालीन राज्य-प्रशासन-व्यवस्था में इस नियम का प्रावधान था कि यदि कोई विदेश के प्रवास से वापस आता था, तो वह राजा की अनुमति से ही नगर में प्रवेश कर सकता था। प्रवासी चारुदत्त, विद्याधर देव से प्राप्त सम्पत्ति के साथ जब चम्पापुरी लौटा, तब नगर के बाहर खच्चर, गधे, ऊँट आदि (सवारी के साधन) बाँध दिये गये और विविध वस्तुओं तथा उपस्करों से लदी गाड़ियाँ ठहरा दी गईं। विद्याधर देव द्वारा सन्दिष्ट चम्पापुरी का राजा भिनसार में ही अपने कतिपय परिजनों और दीपवाहकों (मशालचियों) के साथ आया। चारुदत्त ने राजा से अपना वृत्तान्त निवेदित किया और अर्घ्य से उसकी अभ्यर्थना की। उसके बाद राजा ने उससे कहा : “इतनी विपुल सम्पत्ति
और कन्या गन्धर्वदत्ता एवं दास-दासी के साथ विदेश से तुम्हारे लौटने पर राज्य व्यवस्था की दृष्टि से मुझे कोई परेशानी नहीं है, बल्कि मैं तुमसे अपने को सबल अनुभव करता हूँ। तुम अपने घर में प्रवेश करो। मैं तुम्हें उन्मुक्ति देता हूँ (गन्धर्वदत्तालम्भ : पृ. १५४)।"
उस समय राजा का अभिषेक बड़े ठाट-बाट से होता था। तीर्थंकर नाम-गोत्र के राजाओं का अभिषेक तो स्वयं इन्द्र करते थे। राजा ऋषभनाथ के राज्याभिषेक के समय लोकपाल-सहित इन्द्र स्वयं पधारे थे और उन्होंने पहले तो उन्हें अभिषिक्त किया, फिर सब प्रकार के अलंकारों से विभूषित भी किया। ऋषभनाथ के प्रजाजन उनके आदेशानुसार जब पद्मसरोवर से पद्मपत्र में जल लेकर लौटे, तब उन्होंने इन्द्र द्वारा अभिषिक्त ऋषभनाथ को देवों से घिरा हुआ देखा। ऐसी स्थिति में, उन प्रजाजनों ने पद्मपत्र के जल को भगवान् के चरणों में चढ़ा दिया और सभी मिलकर जय-जयकार करने लगे (नीलयशालम्भ : पृ. १६२)।
प्राचीन समय में, राजा के रथ पर स्वीकृत चिह्न-विशेष से अंकित ध्वज के लहराने की चिराचरित प्रथा रही है। वसुदेवहिण्डीकार संघदासगणी ने भी रुक्मिणी के कथाप्रसंग में कृष्ण