Book Title: Vasudevhindi Bharatiya Jivan Aur Sanskruti Ki Bruhat Katha
Author(s): Shreeranjan Suridevi
Publisher: Prakrit Jainshastra aur Ahimsa Shodh Samsthan
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वसुदेवहिण्डी : भारतीय जीवन और संस्कृति की बृहत्कथा कर दिया है। जैसे : 'अत्यि कुटुंबिणो, जेहितो सक्का हिरण्णं घेत्तुं' (गन्धर्वदत्तालम्भ : पृ. १४५); 'बब्बर-जवणे य अज्जियाओ अट्ठ कोडीओ' (तत्रैव : पृ. १४६); ‘उवणीया बत्तीस कोडीओ विलिएण कविलेण' (कपिलालम्भ : पृ. २००), 'पइ दिवसं अद्धसहस्सं वसंततिलयामाऊए 'विसज्जंति' (धम्मिल्लचरित : पृ. २९) आदि । संघदासगणी ने एक जगह 'दीनार' का स्पष्ट उल्लेख किया है। कथा है कि उज्जयिनी जाते हुए सार्थवाहों में एक सार्थमहत्तरक को त्रिदण्डी परिव्राजक ने, जो वस्तुत: चोर था, अलग ले जाकर उससे कहा : 'मुझे एक भिक्षादाता ने देवता के लिए धूप के मूल्यस्वरूप पच्चीस दीनार दिये हैं।' यह कहकर धूर्त त्रिदण्डी ने नकली दीनार सार्थ को दिखलाये। तब सार्थवाह ने कहा : 'भगवन् ! आप डरें नहीं। हमारे पास भी बहुत पारे दीनार हैं। यात्रा में जो दशा आपकी होगी, वहीं हमारी भी होगी।' ('भयवं मा बीहेह अम्हं बहुतरा दीणारा अस्थि, जं अम्हं होहिति तं तुब्मंपि होहिति; धम्मिल्लहिण्डी : पृ. ४३) । बृहत् हिन्दी (ज्ञान)-कोश के अनुसार, दीनार सोने के विशिष्ट सिक्के का नाम था। यह सिक्का प्राचीन समय में एशिया और यूरोप में चलता था। देश और कालभेद से इसकी तौल और मूल्य में भिन्नता होती थी। सोने की मुद्रा या अशर्फी को भी दीनार कहा जाता था।
कथाकार के वर्णन से यह स्पष्ट है कि उस प्राचीन युग में पूँजी को 'प्रक्षेप' और थाती या धरोहर को 'निक्षेप' कहने की सामान्य प्रथा थी। उस युग में व्यापारी करोड़ों का माल साथ लेकर चलते थे। लेन-देन के लिए पण या सिक्के का ही प्रयोग प्रचलित था। व्यापारी अपने माल को गाड़ियों में तथा पणों या सिक्को को बोरों में भरकर और उन्हें खच्चरों पर लादकर ले जाते थे। कथोत्पत्ति-प्रकरण की एक कथा है कि कोई बनिया गाड़ियों में एक करोड़ का माल और खच्चरों पर बोरों में भरे सिक्के लादकर व्यापार के लिए जा रहा था, तभी जंगल में खच्चर के ऊबड़-खाबड़ रास्ते पर चलने से बोरा फट गया और सिक्के गिरकर बिखर गये। बनिया जबतक सिक्कों को बटोरने में लगा रहा, तबतक चोर उसके सारे माल चुराकर चल दिये (पृ. १५)।
उक्त कथाप्रसंग से यह भी स्पष्ट है कि स्थलपथ के सार्थवाह यात्रियों को भी मार्ग में चोरों या डाकुओं से लूटे जाने का भय बराबर बना रहता था। इतना ही नहीं, चोर अपने घातक अस्त्रों से व्यापारियों की हत्या तक कर डालते थे। रास्ते में चोरों और लुटेरों के अतिरिक्त जंगली हिंस्रक जानवरों के भय से भी सार्थवाह निरन्तर आतंकित रहते थे। इसीलिए, 'अथर्ववेद' के पृथ्वीसूक्त में सार्थवाह के मार्गों के तस्कर-विहीन और कल्याणकारी होने की प्रार्थना की गई है : 'यैः सञ्चरन्त्युभये भद्रपापास्तं पन्थानं जयेमानमित्रमतस्कर, यच्छिवं तेन नो मृड' (अथर्व. १२.१.४७) ।
व्यापार और अर्थ-व्यवस्था के क्रम में माप-तौल का भी महत्त्वपूर्ण स्थान है। संघदासगणी ने पालिया (धम्मिल्लचरित : पृ. ५७) और कुम्भार (तत्रैव : पृ. ६४) जैसे विशिष्ट परिमाणों का उल्लेख किया है। 'पाइयसद्दमहण्णवो' में 'पालि' का अर्थ, धान्य मापने की नाप दिया गया है। बृहत् हिन्दी-कोश के अनुसार, ‘पाली' 'प्रस्थ' नामक परिमाण है। प्रस्थ बत्तीस पल या आढक के चतुर्थांश का एक प्राचीन परिमाण है। लोक-प्रचलित परिमाण-विशेष 'पैली' से भी यह तुलनीय है। आप्टे महोदय ने भी बत्तीस पल के परिमाण को 'प्रस्थ' कहा है। 'अमरकोश' की मणिप्रभा नाम की हिन्दी-टीका के कर्ता पं. हरगोविन्द मिश्र ने कोशकार अमरसिंह द्वारा संकेतित तीन प्रकार के मानों (तुला, अंगुलि और प्रस्थ) के अन्तर्गत 'प्रस्थ' की विवृति में पौवा, सेर, पसेरी