Book Title: Vasudevhindi Bharatiya Jivan Aur Sanskruti Ki Bruhat Katha
Author(s): Shreeranjan Suridevi
Publisher: Prakrit Jainshastra aur Ahimsa Shodh Samsthan
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वसुदेवहिण्डी : भारतीय जीवन और संस्कृति की वृहत्कथा उत्क्षिप्तक, पत्रक, मन्त्रक और रोविन्दक । मुनि नथमल ने 'ठाणं' के वाद्यविषयक सूत्र की विशद टिप्पणी प्रस्तुत की है। तदनुसार, 'तत' का अर्थ है- तन्त्रीयुक्त वाद्य । आचार्य भरत ने ततवाद्यों में विपंची एवं चित्रा को प्रमुख तथा कच्छपी एवं घोषा को उनका अंगभूत माना है। चित्रा वीणा सात तन्त्रियों से निबद्ध होती थी और उन तत्रियों का वादन अंगुलियों से किया जाता था। विपंची में नौ तन्त्रियाँ होती थीं, जिनका वादनं 'कोण' (वीणावादन का दण्ड) से किया जाता था। भरत ने कच्छपी तथा घोषका या घोषा के स्वरूप के विषय में कुछ नहीं कहा है। 'संगीतरत्नाकर' (शांर्गदेव) के अनुसार, घोषा एकतन्त्री वीणा है। आचारचूला तथा निशीथ में वीणा, विपंची, बद्धीसग, तुणय, पवण, तुंबवीणिया, ढंकुण और झोडय, ये वाद्य 'तत' के अन्तर्गत हैं।
'संगीतदामोदर' में तत वाद्य के २९ प्रकार गिनाये गये हैं : अलावणी, (आलापिनी), ब्रह्मवीणा, किन्नरी, लघुकिन्नरी, विपंची, वल्लकी, ज्येष्ठा, चित्रा, घोषवती, जया, हस्तिका, कुब्जिका, कूर्मी, सारंगी, परिवादिनी, त्रिशवी, शतचन्द्री, नकुलौष्ठी, ढंसवी, औदुम्बरी, पिनाकी, निःशंक, शुष्कल, गदावारणहस्त, रुद्र, स्वरमणमल, कपिलास, मधुस्यन्दी और घोषा।
वितत : चर्म से आनद्ध वाद्यों को वितत कहा जाता है। गीत और वाद्य के साथ ताल एवं लय के प्रदर्शनार्थ चर्मावनद्ध वाद्यों का प्रयोग किया जाता था। इनमें मृदंग, पणव (तन्त्रीयुक्त अवनद्ध वाद्य), दर्दुर (कलशाकार चर्म से आनद्ध वाद्य : दक्षिणभारतीय वाद्य 'घटम्), भेरी, डिण्डिम, पटह आदि मुख्य हैं। ये वाद्य कोमल भावनाओं का उद्दीपन करने के साथ-साथ वीरोचित उत्साह बढ़ाने में भी कार्यकर होते हैं। अतः इनका उपयोग धार्मिक समारम्भों तथा युद्धों में भी होता रहा है। भरत के चर्मावनद्ध वाद्यों में मृदंग तथा दर्दुर प्रधान है तथा मल्लकी और पटह गौण । आचारचूला में मृदंग, नन्दीमृदंग और झल्लरी को तथा 'निशीथ में मृदंग, नन्दी, झल्लरी, डमरुक, मड़य, सय, प्रदेश, गोलकी आदि वाद्यों को वितत के अन्तर्गत कहा गया है। इनके अतिरिक्त भी मुरज, ढक्का, पणव, त्रिवली, हुडुक्का, झल्ली आदि अनेक वाद्य वितत में परिगणित हुए हैं।'
घन : कांस्य आदि धातुओं से निर्मित वाद्य घन कहलाते हैं। करताल, कांस्यवन, नयघटा, शुक्तिका, कण्ठिका, पटवाद्य, पट्टघोष, घर्घर, झंझताल, मंजीर, कर्तरी, उष्कूक आदि इसके कई प्रकार हैं। आचारचूला में ताल शब्द के अन्तर्गत ताल, कंसताल, लत्तिय, गोहिय, और किरकिरिया की गणना की गई है। 'निशीथ' में घन शब्द के अन्तर्गत ताल, कंसताल, लत्तिय, गोहिय, मकरिय, कच्छमी, महति, सणालिया और वालिया नामक वाद्य उल्लिखित हुए हैं।११
१. भरत : नाट्यशास्त्र, ३३.१५ २. उपरिवत्, २९.११४ ३. संगीतरत्नकर, वाद्याध्याय, पृ. २४८ : 'घोषखश्चैकतन्त्रिका।' ४. अंगसुत्ताणि, भाग १,पृ. २०९; आयारचूला,११.२ ५.निसीहज्झयणं,१७.१३८ ६. प्राचीन भारत के वाद्ययन्त्र, कल्याण” (हिन्दू-संस्कृति-अंक), पृ.७२१-७२२ ७. अंगसुत्ताणि, भाग १, पृ. २०९; आयारचूला, ११.१ ८.निसीहज्झयणं, १७.१३७ ९. प्राचीन भारत के वाद्ययन्त्र, “कल्याण" (हिन्दू-संस्कृति अंक), पृ.७२१-७२२ १०.अंगसुत्ताणि, भाग १,पृ. २०९; आयारचूला,११३ ११.निसीहज्झयणं, १७.१३९