Book Title: Vasudevhindi Bharatiya Jivan Aur Sanskruti Ki Bruhat Katha
Author(s): Shreeranjan Suridevi
Publisher: Prakrit Jainshastra aur Ahimsa Shodh Samsthan
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वसुदेवहिण्डी में प्रतिबिम्बित लोकजीवन
४०१ चारों प्रकार के देव आये थे और इन्होंने शान्तिस्वामी के धर्म-प्रवचन के लिए उत्कृष्ट वास्तुशास्त्रीय पद्धति से प्रशस्त धर्मसभा की रचना की थी। ये देव देवराज शक्र की अन्तरंग परिषद् के सदस्य थे। देव-विमानों में रहनेवाले देव वैमानिक कहलाते थे। सूर्य, चन्द्र, ग्रह, नक्षत्र और तारे ये पाँच ज्योतिष्क देवों में परिगणित थे। भवनपति देवों में असुरकुमार, नागकुमार, विद्युत्कुमार, अग्निकुमार, द्वीपकुमार, उदधिकुमार, दिशाकुमार, वायुकुमार, स्तनितकुमार आदि उल्लेखनीय थे तथा व्यन्तर देवों में पिशाच, भूत, यक्ष, राक्षस, किन्नर, किम्पुरुष, महोरग, गन्धर्व, अनपन्न, प्रणपन्न, ऋषिवादी, भूतवादी, स्कन्दक, महास्कन्दक, कूष्माण्डक, पतंग आदि की गणना होती थी। ___ इन सभी देवों के भी लोकान्तिक, आभियोगिक, जृम्भक, किल्विषक आदि अनेक भेदोपभेद थे। इन देवों की पलियाँ और कन्याएँ देवियों के रूप में प्रतिष्ठित थीं। इन देवों के अपने-अपने अधिपति इन्द्र होते थे, सेना और सेनापतियों का भी प्रावधान था। इन्द्र की सभा में गायकों और नर्तकियों का जमघट रहता था। इन्द्र के आदेश से या स्वयं भी देव कभी-कभी मानवों की तपोनिष्ठा की परीक्षा लेते थे। साधुओं की प्रव्रज्या, केवलज्ञान-महोत्सव आदि के समय देवों का आसन विचलित हो उठता था। प्रसन्न होने पर, ये देव मनुष्यभूमि पर रत्नों और फूलों तथा वस्त्रों के साथ गन्धोदक की वर्षा करते थे, साथ ही दुन्दुभी भी बजाते थे। विशेषतया व्रती भिक्षुओं को पारण करानेवाले के प्रति, प्रसन्न होकर ये देव उक्त कार्य अवश्य करते थे। इसे जैन आम्नायिक शब्दावली में 'पंचदिव्य' की संज्ञा दी गई है।
संघदासगणी ने अपनी लोकचेतनाश्रित पुरुषार्थ-चतुष्टयप्रधान कथाकृति 'वसुदेवहिण्डी' में देव-देवियों के उपर्युक्त सभी प्रकरणों को रूढिप्रौढता के साथ शिल्पित-चित्रित किया है, जिससे उनके आगम-साहित्य के तलस्पर्शी ज्ञान पर चकित-विस्मित रह जाना पड़ता है । कथा-साहित्य में आगमसाहित्य के विवरणों का विनिवेश कथारस को आहत करने की अपेक्षा उसमें ज्ञानामृत का तरल सिंचन बनकर उद्भावित होता है । यहाँ 'वसुदेवहिण्डी' के देव-विषयक कतिपय सन्दर्भ द्रष्टव्य हैं। ___ संघदासगणी ने तैंतीस देवों की संख्या-परिकल्पना का समर्थन किया है । वसुदेव को देखकर अतिशय विस्मित वेदपारगों ने उनकी प्रशंसा करते हुए कहा था कि निश्चय ही ये तैंतीस देवों में कोई एक हैं: 'देवाण नूणं एक्को तेत्तीसाए (सोमश्रीलम्भ : पृ. १९४) । देवों की ज्योति देखकर मनुष्य को जातिस्मरण हो आता था और वह मूर्च्छित भी हो जाता था। ऋषभस्वामी से सम्बद्ध पूर्वभव-चरित सुनाते हुए श्रेयांस ने कहा कि वह अपने सातवें भव में मन्दर, गन्धमादन, नीलवन्त
और माल्यवान् पर्वतों के बीच बहनेवाली शीता महानदी द्वारा बीचोबीच विभक्त उत्तर कुरुक्षेत्र में स्त्री-मिथुन के रूप में उत्पन्न हुआ था और भगवान् ऋषभस्वामी नर-मिथुन के रूप में । देवलोक के समान उस उत्तरकुरुक्षेत्र के ह्रदतट पर दस प्रकार के कल्पवृक्षों से उत्पन्न भोगोपभोग से प्रमुदित वे दोनों अशोकवृक्ष की छाँह में, नवनीत के समान स्पर्शवाले वैडूर्यमणि के शिलातल पर सुखपूर्वक बैठे थे। तभी, एक देव स्नान के निमित्त उस ह्रद में आकाश से उतरे और स्नान करके फिर आकाश में उड़ गये।
उस देव ने अपने प्रभाव (प्रभास) से दसों दिशाओं को उद्भासित कर दिया। मिथुन पुरुष, आकुल करनेवाले उस प्रकाश को देखते ही चिन्तित हो उठा और मूर्च्छित हो गया। स्त्री-मिथुन
१. पंचविहा जोइसिया पण्णत्ता,तं जहावंदा, सूरा, गहा, णक्खत्ता, ताराओ। –'स्थानांग' : ५. ५२ २.विशेष विवरण के लिए 'स्थानांग' (स्थान ३ और ४) द्रष्टव्य है।