Book Title: Vasudevhindi Bharatiya Jivan Aur Sanskruti Ki Bruhat Katha
Author(s): Shreeranjan Suridevi
Publisher: Prakrit Jainshastra aur Ahimsa Shodh Samsthan
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वसुदेवहिण्डी में प्रतिबिम्बित लोकजीवन
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नृत्य को यक्षाविष्ट पराधीन मनुष्य के कायविक्षेप और वाक्प्रलाप से विडम्बित किया है ('इत्थी पुरिसो वा जो जक्खाइट्ठो परवत्तव्वो, मज्जे पीए वा जातो कायविक्खेवजातीओ दंसेड़, जाणि वा वयणाणि भासति सा विलंबणा' नीलयशालम्भ : पृ. १६७) ।
कथानायक वसुदेव के मुख से स्वयं उनके यक्षिणियों के चंगुल में फँसने की कल्पित कथा कहलवाकर कथाकार संघदासगणी ने तत्कालीन लोकजीवन में प्रचलित यक्षिणियों द्वारा आकाश में उड़ा ले जाने की धारणा की सम्पुष्टि की है । अंगारक ने वसुदेव को जिस अन्धकूप में फेंक दिया था, उससे निकलकर जब वे अंग- जनपद की चम्पानगरी में पहुँचे, तब वहाँ उन्हें एक अधेड़ उम्र का आदमी दिखाई पड़ा। उसके जिज्ञासा करने पर वसुदेव ने अपने छद्म परिचय में कहा : 'सुनो, मैं मगधवासी गौतमगोत्रीय स्कन्दिल नाम का ब्राह्मण हूँ । मुझे यक्षिणी से प्रेम हो गया । वह मुझे आकाशमार्ग से अपने इच्छित प्रदेश में ले जा रही थी कि दूसरी यक्षिणी ने ईर्ष्यावश हमारा पीछा किया और जब दोनों यक्षिणियाँ आपस में लड़ने लगी, तब मैं आकाश से गिर पड़ा।' उस मनुष्य ने बहुत गौर से रूपवान् वसुदेव को देखकर कहा : 'सम्भव है, आश्चर्य नहीं कि यक्षिणियाँ आपको चाहती हों।' इस उत्तर में यह ध्वनित है कि रूपोन्मादवती यक्षिणियाँ रूपवान् पुरुषों पर मुग्ध होकर उन्हें अपनी कामतृप्ति के लिए ईप्सित स्थानों में ले जाती थीं। आज भी यह लोकविश्वास है कि किच्चिन ( डाकिनी या शाकिनी का रूपान्तर) जाति की भूतयोनि की महिलाएँ बलिष्ठ सुन्दर युवा के शरीर पर आती हैं और उन्हें आविष्ट कर अपनी कामतृषा शान्त करती हैं । यह 'किच्चिन' शब्द यक्षिणी जक्खिनी जक्खिन आदि से ही क्रमशः विकसित प्रतीत होता है । कहना न होगा कि यक्षिणी की चारित्रिक परम्परा आधुनिक लोकचेतना में 'किच्चिन' के रूप में जीवित है ।
संघदासगणी ने कमलाक्ष, लोहिताक्ष, सुमन और सुरूप इन चार यक्षों का नामत: उल्लेख किया है। इन यक्षों के चरित्र-चित्रण से स्पष्ट है कि यक्ष- जाति के सदस्य भी बड़े रूपवान् होते थे । ललितकलाओं से सम्पन्न यक्ष-यक्षिणी के रूप-चित्रण की दृष्टि से कालिदास की पार्यन्तिक काव्यकृति 'मेघदूत' निश्चय ही संघदासगणी के लिए आदर्श रहा है। राजगृह के नागरिक, वसुदेव के रूप से विस्मित होकर उन्हें यक्षाधिपति कुबेर के भवनवासी कमलाक्ष यक्ष के तुल्य समझ बैठे थे । ( स माणुसो, अवस्सं धणदभवणचरो कमलक्खो जक्खो हवेज्ज; वेगवतीलम्भ: पृ. २४८) । इसी प्रकार, भद्रक महिष ने देहत्याग के बाद असुरेन्द्र चमर के महिषयूथपति लोहिताक्ष यक्ष के रूप में पुनर्जन्म ग्रहण किया था (बन्धुमतीलम्भ: पृ. २७५) । लोहिताक्ष नाम से ही इसके अतिशय रूपवान् रहने की अभिव्यंजना होती है ।
भारतीय साहित्य में यक्ष की चर्चा के क्रम में, मनोरमता प्राय: सर्वत्र जुड़ी हुई है । संघदासगणी ने भी मगध- जनपद के शालिग्राम गाँव के एक मनोरम नामक उद्यान चर्चा की है, जहाँ अशोकवृक्ष के नीचे सुमन नामक यक्ष की सुमना नाम की शिला प्रतिष्ठित थी, जिसपर सुमन की प्रसन्नता के उद्देश्य से लोग पूजा करते थे (पीठिका: पृ. ८५) । सत्यवादी सत्य नाम के साधु ने सुमना शिला के निकट ही सार्वरात्रिक व्रतपूर्वक कायोत्सर्ग किया था (तत्रैव : पृ. ८८ ) । इसी प्रकार, एक अन्य कथा में कथाकार ने सुरूप, अर्थात् अतिशय रूपवान् यक्ष का उल्लेख किया है । प्रसंग है कि विद्याधर दमितारि बहुत काल तक इस संसार का भ्रमण करके इसी भारतवर्ष