Book Title: Vasudevhindi Bharatiya Jivan Aur Sanskruti Ki Bruhat Katha
Author(s): Shreeranjan Suridevi
Publisher: Prakrit Jainshastra aur Ahimsa Shodh Samsthan
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वसुदेवहिण्डी में प्रतिबिम्बित लोकजीवन,
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कोंकणावतंसक विमान में कनकचित्ता नाम की देवी थी। वह महाशुक्र कल्प में रहनेवाले देव की पत्नी थी। वह देव, देवराज के समान था और स्वयम्प्रभ विमान का अधिपति था। कनकचित्ता ने महाशुक्रवासी उस देव का स्मरण किया और उसी के प्रभाव से क्षणभर में ही वह महाशुक्र स्वर्ग में जा पहुँची। वहाँ सौधर्म कल्प से भी अनन्तगुना शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गन्ध—इन पाँचों विषयों का सुखानुभव करती हुई, मनोहर गीतों, वचनों और तत्काल योग्य भूषण, शयन आदि से प्रीति बढ़ाती हुई वह उनसे विदा लेकर कोंकणावतंसक लौट आई ! इस प्रकार अपने पति देव से दुलार पाती हुई, उस देवी ने अनेक पल्योपम काल एक दिन के समान बिता दिये (सोमश्रीलम्भ : पृ. २२२) ।
एक दिन धातकीखण्डद्वीप के पूर्वार्द्ध में स्थित अयोध्या नगरी में अर्हत् मुनि सुव्रत के जन्मोत्सव में कुछ देव पधारे । वह देवी भी (वर्तमान जन्म की सोमश्री) अपने पति के साथ वहाँ पहुँची। उत्सव की समाप्ति के बाद, उसी समय, धातकीखण्डद्वीप के पश्चिमार्द्ध में अर्हत् दृढधर्म के परिनिर्वाणोत्सव की विधि पूरी करके पधारे हुए देव अपने स्थान को लौट गये। वह देवी भी अपने पति और महाशुक्रलोक के अधिपति के निकटवर्ती देव के साथ धातकीखण्डद्वीप से महाशुक्र कल्प के लिए प्रस्थित हुई। रास्ते में, ब्रह्मलोक में रिष्ट विमान के मध्यभाग के निकट देवताओं के प्रस्तट (भवन का अन्तर्भाग) के बीच उस देवी का पति (देव) इन्द्रधनुष के रंग की भाँति सहसा लुप्त हो गया (तत्रैव : पृ. २२२)। आगे की कथा से स्पष्ट है कि उस देवी का पति च्युत होकर मर्त्यभूमि पर चला गया था। स्वर्ग में विचरण करनेवाले ये दोनों देव-देवी मर्त्यभूमि पर वसुदेव और सोमश्री के रूप में पुन: पति-पत्नी बने।
कथाकार द्वारा प्रस्तुत स्वर्ग की वर्णन-सघनता की मनोहारिता का एक और सन्दर्भ द्रष्टव्य है । वज्रायुध साधु एकान्त जीर्णोद्यान में अहोरात्रिका प्रतिमा (व्रत) में था । वहाँ उसे अतिकष्ट (पूर्वभव का कसाई-पुत्र दारुण) ने देखा । देखते ही पूर्वभव के वैरानुबन्धवश तीव्र रोष से आविष्ट हो अतिकष्ट ने म्यान से तलवार निकाली और वध करने के अभिप्राय से वज्रायुध के टुकड़े-टुकड़े कर दिये । वज्रायुध चूँकि दृढ, उत्तम और प्रशस्त ध्यान में लीन था, उसका चारित्र (नियमाचार) अखण्डित था और उसके समस्त धर्म-कर्म यथावत् थे, इसलिए मृत्यु को प्राप्त होकर उसने सर्वार्थसिद्ध नामक कल्पातीत देवलोक में देवत्व-लाभ किया। इसी प्रकार, दया, सत्य और आर्जव भावना से सम्पन्न राजा रत्नायुध ने, जिससे वज्रायुध ने राजा सुमित्र की दुर्गति की कथा सुनकर श्रावक-धर्म स्वीकार किया था, बहुत काल तक श्रमणोपासक की भूमिका में रहकर व्रत का पालन किया। उसके बाद उसने अपने पुत्र को राज्यलक्ष्मी सौंप दी और स्वयं आहार का परित्याग कर समाधिमरण द्वारा शरीर को विसर्जित किया। तत्पश्चात् वह अच्युत कल्प में, पुष्पक विमान में बाईस सागरोपम काल तक के लिए देव हो गया। रत्नायुध की माता देवी रत्नमाला ने भी व्रत
और शील-रूपी रत्नों की माला एकत्र करके मृत्यु प्राप्त की और वह भी अच्युत कल्प में ही, नलिनीगुल्म विमान में, उत्कृष्ट स्थिति से सम्पन्न देव हो गई।
रत्नायुध और रत्नमाला देवत्व के स्थितिक्षय से च्युत होकर धातकीखण्डद्वीप के पश्चिम विदेह (महाविदेह) के पूर्वभाग में शीता (सीता) महानदी के दक्षिणतट-स्थित नलिनीविजय की अशोकानगरी के राजा अरिंजय की रानियों-सुव्रता और जिनदत्ता के वीतिभय और विभीषण नाम से बलदेव और