Book Title: Vasudevhindi Bharatiya Jivan Aur Sanskruti Ki Bruhat Katha
Author(s): Shreeranjan Suridevi
Publisher: Prakrit Jainshastra aur Ahimsa Shodh Samsthan
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वसुदेवहिण्डी : भारतीय जीवन और संस्कृति की बृहत्कथा ___ यजुर्वेद (२२.२२) में, मंगलकामनापरक एक प्रसिद्ध मन्त्र में क्षत्रियों के लिए कहा गया है कि “आराष्ट्र राजन्यः शूरऽ इषव्योऽतिव्याधी महारथो जायताम्।” अर्थात्, वीर क्षत्रिय इषुकर्म या बाण-सन्धान में निपुण (इषव्य) तथा बड़ी दूर-दूर तक लक्ष्यवेध करनेवाला (अतिव्याधी) हो। वेद का ही एक दूसरा मन्त्र है, जिसमें आकर्णकृष्ट धनुष का आलंकारिक युद्धोपयोगी वर्णन है। उसमें कहा गया है कि "वितताधि धन्वन् ज्या इयं समने पारयन्ती। अर्थात्, युद्धस्थल में शत्रु को परास्त करने के लिए ज्या को धनुष पर चढ़ाकर इतने बल से आकर्षण करे कि ज्या कान तक पहुँच जाय । इस प्रकार, धनुर्विद्या का निर्देश करनेवाले कितने ही वाक्य वैदिक साहित्य में उपलब्ध होते हैं।
उपनिषत्काल में धनुर्विद्या इतनी अधिक प्रचलित तथा लोकप्रिय थी कि अध्यात्मविद्या जैसे गहन विषय के उपदेश के लिए धनुर्विद्या को ही उपमान माना गया है। इस सन्दर्भ में अथर्ववेदीय 'मुण्डकोपनिषद्' के द्वितीय मुण्डक के द्वितीय खण्ड के दो मन्त्र (सं. ३-४) उदाहर्त्तव्य हैं। पहला मन्त्र है :
धनुर्गृहीत्वोपनिषदं महास्त्रं शरं ह्यपासानिशितं सन्धयीत ।
आयम्य तद्भावगतेन चेतसा लक्ष्यं तदेवाक्षरं सोम्य विद्धि ।। अर्थात्, उपनिषत्प्रतिपादित ज्ञानरूपी महास्त्र धनुष को हाथ में लेकर उसपर उपासना-रूपी तीक्ष्ण बाण का सन्धान करो। हे सौम्य ! अपनी चित्तवृत्तियों को केन्द्रित करके अक्षरब्रह्म को अपना लक्ष्य समझकर केवल उसका ही चिन्तन करो। दूसरा मन्त्र इस प्रकार है, जिसमें पूर्वमन्त्रोक्त रूपक को स्पष्ट किया गया है :
प्रणवो धनुः शरो ह्यात्मा ब्रह्म तल्लक्ष्यमुच्यते।
अप्रमत्तेन वेद्धव्यं शरवत्तन्मयो भवेत्॥ अर्थात्, ओंकार ही धनुष है, आत्मा ही बाण है, परब्रह्म परमेश्वर ही उसका लक्ष्य कहा जाता है, वह प्रमादरहित मनुष्य द्वारा ही बींधे जाने योग्य है। इसलिए, उसके बेधने में (लक्ष्य को प्राप्त करने की क्रिया में) लक्ष्यैकतान बाण के समान तन्मय हो जाना चाहिए।
लक्ष्य के प्रति इसी तन्मयता का वर्णन महाभारत में भी है। धनुर्विद्या के शिक्षण के क्रम में आचार्य द्रोण ने एक कृत्रिम चिड़िया बनाकर ऊँचे वृक्ष पर रख दी और अपने तेजस्वी शिष्य अर्जुन से, लक्ष्यवेध की आज्ञा देकर बाण छोड़ने से पूर्व प्रश्न किया कि इस समय तुम्हें क्या-क्या
१. पूरी ऋचा इस प्रकार है :
वक्ष्यन्ती वेदा गनीगन्ति कर्ण प्रियं सखायं परिषस्वजाना। योषेव शिङ्क्ते वितताधि धन्वज्या इयं समने पारयन्ती ॥
- यजुर्वेद, २९.४०
अर्थात्, स्त्री जिस प्रकार मानों कुछ कहती हुई-सी कान के समीप आती और अपने प्रिय सखा-सदृश पति का आलिंगन करती हुई एकचित्त हो करने योग्य गृहस्थोक्ति कृत्य पुत्रोत्पत्ति आदि कार्यों के पार लगा देती है, उसी प्रकार यह धनुष की डोरी धनुष पर कसी हुई मानों कुछ कहती हुई-सी कान के पास तक आती है और अपने प्रिय मित्र के समान धनुर्दण्ड का आलिंगन करती हुई ध्वनि करती है और वही संग्राम के पार लगा देती है।