Book Title: Vasudevhindi Bharatiya Jivan Aur Sanskruti Ki Bruhat Katha
Author(s): Shreeranjan Suridevi
Publisher: Prakrit Jainshastra aur Ahimsa Shodh Samsthan
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वसुदेवहिण्डी की पारम्परिक विद्याएँ
थे। उपर्युक्त युद्ध में भी वसुदेव की सहायता के लिए अरिंजयपुर का विद्याधरनरेश दधिमुख विद्याबल से रथ तैयार कर और स्वयं सारथी बनकर युद्धस्थल में आ डटा था । कुल मिलाकर, प्राचीन युद्ध में मानवता की रक्षा और कम-से-कम हिंसा की ओर योद्धा राजाओं का ध्यान रहता था। वे राजा युद्धप्रिय होने के साथ मानवताप्रिय भी होते थे तथा अस्त्रयुद्ध को मूलतः अधम कोटि का युद्ध माना जाता था ।
निष्कर्ष :
२४१
इस प्रकरण के प्रारम्भ में, 'वसुदेवहिण्डी' में आचार्य संघदासगणी द्वारा प्रोक्त धनुर्वेद की उत्पत्ति-कथा से यह स्पष्ट है कि मिथुनधर्म के अवसानकाल में दण्डनीति के आदिम तीन प्रकार‘हाकार', 'माकार' और 'धिक्कार' के उल्लंघन करनेवाले वक्रजड लोगों की बहुलता के कारण उन्हें अनुशासित करने के लिए राजा की परिकल्पना की गई और नाभिपुत्र ऋषभश्री (आदि तीर्थंकर) को राजा के रूप में गद्दी पर बैठाया गया । उनके समय की प्रजाओं में क्रोध, मान, माया और लोभ कम होते थे । उस प्राचीन काल के लोग ऋजु जड, यानी प्रकृत्या भद्र और सीधे-सादे थे । मध्यकाल के मनुष्य ऋजुप्राज्ञ हुए, किन्तु उत्तरकाल लोग वक्रजड होते गये, जो अपनी स्वार्थसिद्धि के लिए धार्मिक या नैतिक सिद्धान्तों की अपने मन के अनुकूल व्याख्या करने लगे, साथ ही सामाजिक नियमों का उल्लंघन भी । ऐसी स्थिति में सामान्य जनता को अनुशासित करना अनिवार्य हो गया ।
किन्तु, जब ऋषभस्वामी के प्रथम पुत्र भरत समस्त भारतवर्ष के राजा हुए और उन्हें देवताधिष्ठित चौदह रत्न' और नौ निधियों का स्वामित्व प्राप्त हुआ, तब अस्त्र-शस्त्र की पूर्ति करनेवाली 'मानव' नामक निधि ने भरत को व्यूहरचना एवं अस्त्र-शस्त्र और कवच के निर्माण का उपदेश किया। कालान्तर में जब स्वार्थमूलक भावनाओं का अधिकाधिक विकास हुआ और ज्यों-ज्यों कठोरहृदय होते गये, त्यों-त्यों अपने अमात्यों के परामर्श से अपनी मति के अनुसार उन्होंने विभिन्न अस्त्रों की रचना की और उनके प्रयोग की पद्धति का भी प्रचार किया। इस प्रकार, आयुधवेद या सम्पूर्ण सैन्यविज्ञान का नाम ही धनुर्वेद हो गया। इससे सिद्ध है कि आयुधवेद में धनुष-बाण का सर्वाधिक महत्त्व था। साथ ही, प्राचीन युद्धों में विभिन्न अस्त्र-शस्त्रों के अलावा प्रमुखता धनुष-बाण के प्रयोग की ही थी । संघदासगणी के यथाविश्लेषित आयुधवेद के विभिन्न आयामों से यह स्पष्ट है ।
धनुर्विद्या बाहुबल से सम्पन्न व्यक्ति की ही वशंवदा होती थी । आज बाहुबल की कमी के कारण ही धनुर्विद्या का ह्रास हो गया है। सम्प्रति, सन्ताल, कोल, भील आदि अनुसूचित जनजातियों को छोड़ अन्य जातियों में धनुर्विद्या का विशेष आदर नहीं है । विभिन्न वैज्ञानिक आग्नेयास्त्रों के आविष्कार ने तो पूरी प्राचीन शस्त्रास्त्रविद्या को ही नामशेष कर दिया है ।
१. ‘स्थानांग' (७६७-६८) में चौदह चक्रवर्त्तिरत्नों के नाम इस प्रकार हैं: चक्ररत्न, छत्ररत्न, चर्मरत्न, दण्डरत्न, असिरत्न, मणिरत्न, काकणीरत्न, सेनापतिरत्न, गृहपतिरत्न, वर्द्धकीरत्न, पुरोहितरत्न, स्त्रीरत्न, अश्वरत्न और हस्तिरत्न ।
२. जैनसम्प्रदायोक्त नव निधयों के नाम इस प्रकार हैं : काल, महाकाल, पाण्डु, माणवक, शंख, पद्म, नैसर्प, पिंगल और नाना रत्न | ये निधियाँ क्रमशः ऋतुओं के अनुकूल माल्यादिक नाना द्रव्य, भाजन, धान्य, आयुध, वादित्र, वस्त्र, भवन, आभरण और रत्न प्रदान करने की शक्ति रखती थीं ।