Book Title: Vasudevhindi Bharatiya Jivan Aur Sanskruti Ki Bruhat Katha
Author(s): Shreeranjan Suridevi
Publisher: Prakrit Jainshastra aur Ahimsa Shodh Samsthan
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वसुदेवहिण्डी : भारतीय जीवन और संस्कृति की वृहत्कथा के अलंकार-स्वरूप बृहस्पति का उदय था। फिर जिस समय उन्होंने प्रव्रज्या ली, उस समय भी चन्द्रमा रेवती नक्षत्र में ही था (तत्रैव : पृ. ३४६-३४७) ।
चौदहवें मदनवेगालम्भ में, जमदग्नि के नामकरण के सम्बन्ध में, जन्मनक्षत्र की विवेचना का प्रसंग भी प्राप्त होता है । दक्षिण अर्द्धभरत-क्षेत्र में वाराणसी नाम की नगरी है। अग्निशिखर और संघवती वहाँ के राजा-रानी थे। उनके एक पुत्र उत्पन्न हुआ। उसी समय दो ज्योतिषियों से साग्रह प्रश्न किया गया : "बालक का जन्मनक्षत्र बतायें।" उन ज्योतिषियों में एक ने कहा : “सम्प्रति भरणी नक्षत्र समाप्त हो रहा है।” दूसरे ने कहा : “कृत्तिका नक्षत्र प्रारम्भ हो रहा है ।" तब दोनों ज्योतिषियों ने विचार करके और दोनों नक्षत्रों के अधिष्ठाता देवों के आधार पर उस बालक वा नाम 'जमदग्नि' रख दिया। क्योंकि, भरणी का देवता यम है और कृत्तिका का देवता अग्नि (पृ. २३५)।
कौशाम्बी के दृढप्रहारी ने अगडदत्त को शुभ तिथि, करण, नक्षत्र, दिन और मुहूर्त में अस्त्र-शस्त्र और रथ-संचालन की विद्या का प्रशिक्षण देना आरम्भ किया था। (धम्मिल्लहिण्डी : पृ. ३६) ___"ज्योतिषां सूर्यचन्द्रादिग्रहाणां बोधकं शास्त्रं ज्योतिषशास्त्रम्”, अर्थात् सूर्य, चन्द्र आदि ग्रहों
और कालों का बोध करानेवाले शास्त्र को ज्योतिषशास्त्र कहा जाता है। इस व्युत्पत्ति के अनुसार, संघदासगणी ने 'वसुदेवहिण्डी' में नभोमण्डल-स्थित ज्योति:सम्बन्धी विविध विषयों का संकेतोल्लेख किया है। प्राचीन जैनागम 'समवायांग' और 'स्थानांग' के अतिरिक्त 'सूर्यप्रज्ञप्ति', 'गर्गसंहिता', 'ज्योतिष्करण्डक' आदि में भी ज्योतिषशास्त्र की अनेक महत्त्वपूर्ण बातों का वर्णन किया गया है और संघदासगणी के लिए ये ही प्राचीन ज्योतिष-ग्रन्थ आधार रहे होंगे। इसीलिए, ज्योतिष-विषयक जैन मान्यताओं का भी उल्लेख संघदासगणी ने किया है।
जैन मान्यता में बीस कोटाकोटि अद्धा सागर का एक कल्पकाल बताया गया है। इस कल्पकाल के दो भेद हैं—एक अवसर्पिणी और दूसरा उत्सर्पिणी। अवसर्पिणी-काल के सुषमासुषमा, सुषमा, सुषमा-दुषमा, दुषमा-सुषमा, दुषमा और दुषमा-दुषमा ये छह भेद तथा उत्सर्पिणी के दुषमा-दुषमा, दुषमा, दुषमा-सुषमा, सुषमा-दुषमा, सुषमा और सुषमा-सुषमा ये छह भेद माने गये हैं। सुषमा-सुषमा का प्रमाण चार कोटाकोटि सागर, सुषमा का तीन कोटाकोटि सागर, सुषमा-दुषमा का दो कोटाकोटि सागर, दुषमा-सुषमा का बयालीस हजार वर्ष कम एक कोटाकोटि सागर, दुषमा का इक्कीस हजार वर्ष एवं दुषमा-दुषमा का भी इक्कीस हजार वर्ष होता है। प्रथम और द्वितीय काल में भोगभूमि' की रचना, तृतीय काल में आदि में भोगभूमि और अन्त में कर्मभूमि की रचना होती है । इस तृतीय काल के अन्त में चौदह कुलकर उत्पन्न होते हैं, जो प्राणियों को विभिन्न प्रकार की शिक्षाएँ देते हैं।
प्रथम कुलकर, प्रतिश्रुति के समय में, जब मनुष्य को सूर्य और चन्द्रमा दिखाई पड़े, तब वे इनसे शंकित हुए और अपनी शंका दूर करने के लिए इनके पास गये। इन्होंने सूर्य और चन्द्र-सम्बन्धी ज्योतिष-विषयक ज्ञान की शिक्षा दी, जिससे इनके समय के मनुष्य इन ग्रहों के ज्ञान
१. यह अरब-खरब की संख्या से भी कई गुना अधिक होता है। १.जनविश्वास के अनुसार, भोगभूमि में भोजन, वस्तु आदि समस्त आवश्यकताओं की वस्तुएँ कल्पवृक्षों से प्राप्त
होती हैं। इस काल में बालक ४९ दिनों में युवावस्था को प्राप्त होता है और आयु अपरिमित काल की होती है। इस युग में मनुष्य को योगक्षेम के लिए किसी प्रकार का श्रम नहीं करना पड़ता है।