Book Title: Vasudevhindi Bharatiya Jivan Aur Sanskruti Ki Bruhat Katha
Author(s): Shreeranjan Suridevi
Publisher: Prakrit Jainshastra aur Ahimsa Shodh Samsthan
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वसुदेवहिण्डी : भारतीय जीवन और संस्कृति की बृहत्कथा
होती है, यह कहा नहीं जा सकता। इस चिदानन्दैकरूप जीव को मन से भी नहीं जाना जा सकता है। भावमिश्र ने कहा है:
आत्माऽनादिरनन्तश्चाव्यक्तो वक्तुं न शक्यते । चिदानन्दैकरूपोऽयं मनसाऽपि न गम्यते ॥
(भावप्रकाश: गर्भप्रकरण: श्लो. ३५)
इस सन्दर्भ में महर्षि सुश्रुत कहते हैं कि स्त्री और पुरुष के संयोग के समय वायु शरीर से तेज को उत्पन्न करती है। यह तेज वायु के साथ मिलकर शुक्र को क्षरित करता है । क्षरित शुक्र योनि में पहुँचकर आर्त्तव के साथ मिल जाता है। इसके बाद अग्नीषोमात्मक सम्बन्ध से बना गर्भ गर्भाशय में पहुँचता है। इसके साथ में क्षेत्रज्ञ, वेदयिता, स्प्रष्टा, घ्राता, द्रष्टा, श्रोता, रसयिता पुरुष स्रष्टा, गन्ता, साक्षी, धाता, वक्ता इत्यादि पर्यायवाचक शब्दों से वाच्य अक्षय, अचिन्त्य, भूतात्मा अव्यय - रूप आत्मा सूक्ष्म इन्द्रियों या लिंगशरीर के साथ, अपने कर्मों के अनुसार सत्त्व, रज, तम तथा दैव, आसुर और पशु भावों से युक्त वायु से प्रेरित होकर, गर्भाशय में प्रविष्ट होकर स्थिति करता है।' 'प्रश्नोपनिषद्' में प्रजाकामी प्रजापति द्वारा सृष्टि की बात कही गई है : " तस्मै स होवाच प्रजाकामो वै प्रजापतिः स तपोऽतप्यत स तपस्तप्त्वा स मिथुनमुत्पादयते । रयिं च प्राणं चेत्येतौ मे बहुधा प्रजाः करिष्यत इति (१.४) ।”
जिस प्रकार ऋतुकाल, क्षेत्र (खेत), अम्बु (जल) और बीज के संयोग से अंकुर उत्पन्न होता है, उसी प्रकार विधिपूर्वक ऋतुकाल, क्षेत्र (गर्भाशय), अम्बु (अन्नरस) और बीज (शुक्र- शोणित) के परस्पर मिलने से निश्चित रूप में गर्भ रहता है (सुश्रुत: शरीरस्थान, श्लोक ३३) ।
निष्कर्ष यह कि शुक्र सिर से नख तक के सम्पूर्ण अवयवों का सार है। इसमें सम्पूर्ण शरीर के अंग-प्रत्यंग के प्रतिनिधि मिले रहते हैं । इस शुक्र के साथ आत्मा भी अवतरण करती है। आत्मा के साथ पूर्वजन्मकृत कर्म भी शरीर में अवतीर्ण होता है । इसीलिए पूर्वजन्म
निरन्तर शास्त्राभ्यास के कारण अन्तःकरण को पवित्र किये हुए लोग वर्तमान जन्म में सत्त्वबहुल होते हैं और इन पुरुषों को अपने पूर्वजन्म की जाति का स्मरण रहता है । जिन कर्मों की प्रेरणा से मनुष्य यह शरीर धारण करता है तथा पूर्वजन्म में जिन कर्मों का उसे अभ्यास रहता है, वह उन्हीं कर्मों और गुणों को इस जन्म में पाता है। सुश्रुत के इस मत का समर्थन 'श्रीमद्भगवद्गीता'' के इस श्लोक से भी होता है
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पूर्वाभ्यासेन तेनैव हियते ह्यवशोऽपि सः ।
जिज्ञासुरपि योगस्य शब्दब्रह्मातिवर्त्तते ॥ ( ६.४४ )
१. सुश्रुतसंहिता, शारीरस्थान, ३ ।४ ।
१. भाविताः पूर्वदेहेषु सततं शास्त्रबुद्धयः । भवन्ति सत्त्वभूयिष्ठाः पूर्वजातिस्मरानराः ॥ कर्मणआचोदिता येन तदाप्नोति पुनर्भवे । अभ्यस्ताः पूर्वदेहेये तानेव भजते गुणान् ॥
- सुश्रुतसंहिता : शारीरस्थान, २ ।५७-५८ ।