Book Title: Vasudevhindi Bharatiya Jivan Aur Sanskruti Ki Bruhat Katha
Author(s): Shreeranjan Suridevi
Publisher: Prakrit Jainshastra aur Ahimsa Shodh Samsthan
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वसुदेवहिण्डी : भारतीय जीवन और संस्कृति की बृहत्कथा का भी उल्लेख किया है। आयुर्वेद-ग्रन्थों में चावल या जौ के गाढ़े माँड़ को या माँड़ की काँजी को ‘यरागू' कहा गया है। सुश्रुत के अनुसार, यवागू अधिक पतला नहीं होना चाहिए ।( यवागूविरलद्रवा; सूत्रस्थान, श्लो. ३४५)। यवागू हृदय के लिए प्रिय, तृप्तिकारक और बलवीर्यवर्द्धक होता है (तत्रैव, श्लो. ३४३)। इसीलिए, संघदासगणी ने थकान मिटाने के क्रम में यवागू-पान का उल्लेख किया है । धनार्थी चारुदत्त भटकता हुआ जब त्रिदण्डी के पास पहुँचा है, तब उसके नौकर ने चारुदत्त को स्नान कराकर यवागू पीने के लिए दिया है । (पृ. १४६)।
जिस स्त्री को पुत्र नहीं होता, उसे संघदासगणी ने 'उच्चप्रसवा' कहा है। इसे सुश्रुत के शब्दों में 'निवृत्तप्रसवा' कहा जा सकता है। हालांकि, परिभाषा के अनुसार, दोनों दो प्रकार की वन्ध्याएँ हैं। संघदासगणी ने 'उच्चप्रसवा' का प्रयोग विशुद्ध वन्ध्या के अर्थ में ही किया है। चारुदत्त की माता उच्चप्रसवा, यानी वन्ध्या थी। उसे पुत्र नहीं होता था। अन्त में चारुमुनि के वरदानकल्प आशीर्वाद से उसे पुत्र चारुदत्त प्राप्त हुआ। किन्तु सुश्रुत ने 'निवृत्तप्रसवा' उस स्त्री को कहा है, जो पूर्वसन्तान के बाद लगातार छह वर्षों तक पुत्र प्रसव न करे। छह वर्ष के बाद पुत्र होने पर वह अल्पायु होता है। वन्ध्या के अर्थ में 'उच्चप्रसवा' शब्द संघदासगणी का स्वकल्पित है या चरक, सुश्रुत, वाग्भट आदि प्राचीन आयुर्वेद-ग्रन्थों से इतर किसी प्राचीन आयुर्वेद-संहिता से लिया गया है।
चिकित्सकों ने आपन्नसत्त्वा (गर्भिणी) के लिए मधुरप्राय, स्निग्ध, हृदय के लिए प्रिय, पतला और हल्का, अच्छी तरह से तैयार किया गया एवं अग्निदीपक भोजन का विधान किया है। इसीलिए संघदासगणी ने गर्भवती पुण्ड्रा को चिकित्सकोपदिष्ट भोजन के प्रति तत्पर प्रदर्शित किया है, साथ ही उसके दोहद को सदा ‘अविमानित' बताया है। 'सुश्रुतसंहिता' में कहा गया है कि गर्भवती स्त्री इन्द्रियों के जिस-जिस विषय का भोग करना चाहती है, वैद्य को चाहिए कि गर्भ-हानि के भय से उन-उन पदार्थों को लाकर गर्भिणी को दे। गर्भवती स्त्री की इच्छा के पूर्ण होने पर गुणशाली पुत्र उत्पन्न होता है और इसके विपरीत गर्भ या गर्भवती में विकार आ जाता है। गर्भवती स्त्री के जिन-जिन विषयों की पूर्ति नहीं होती, गर्भ को उन्हीं-उन्हीं विषयों में पीडा होती है, उसकी वही-वही इन्द्रिय विकृत हो जाती है। गर्भवती की इच्छा (दोहद) के अनुसार ही तद्विषयक स्वभाववाली सन्तान उत्पन्न होती है। इसीलिए, संघदासगणी ने अपनी समस्त गर्भवती कथापात्रियों के लिए उनके दोहद की पूर्ति की इच्छा की बराबर चर्चा की है। और, दोहद के अनुसार ही सन्तान उत्पन्न होने का उल्लेख किया है। कंस के पिता उग्रसेन की पली, यानी कंस की माता को गर्भ के तीसरे महीने में राजा के उदर की बलि का मांस खाने का दोहद उत्पन्न हुआ था। (देवकीलम्भ, पृ. ३६८) प्रत्येक गर्भिणी का दोहद भी अपने-आप में प्रायः विचित्र होता है। दोहद भी दैवयोग से (प्राक्तन कर्मों के कारण) ही उत्पन्न होता है ।
१. निवृत्तप्रसवायास्तु पुनः षड्भ्यो वर्षेभ्य ऊर्ध्वं प्रसवमानाया नार्याः कुमारोऽल्पायुर्भवति।
- शारीरस्थान, १०.६६. २. भावप्रकाश, गर्भप्रकरण, श्लो. ३३१ ३. शारीरस्थान, अ. ३,श्लो. १९-२१