Book Title: Vasudevhindi Bharatiya Jivan Aur Sanskruti Ki Bruhat Katha
Author(s): Shreeranjan Suridevi
Publisher: Prakrit Jainshastra aur Ahimsa Shodh Samsthan
View full book text
________________
१४२
वसुदेवहिण्डी : भारतीय जीवन और संस्कृति की वृहत्कथा शरत्कालीन चन्द्र की भाँति प्रतीत होता था। शरीर बढ़ते-बढ़ते इतना ऊँचा उठ गया कि ज्योतिष्पथ (ग्रह-नक्षत्र का मार्ग) क्रमश: उसके वक्षःस्थल, नाभि, कटि और जानुप्रदेश के पास आ गया। धरती हिलने लगी। विष्णु ने अपना दायाँ पैर मन्दराचल के शिखर पर रखा और दूसरे (बाँये) पैर को जब आगे रखा, तब समुद्र का जल उद्वेलित हो उठा। तब उसने दोनों तलहत्थियों को एक साथ आहत किया, जिसके (ताली के) शब्द से महर्द्धिक देवों के अंगरक्षक अतिशय त्रस्त हो उठे !
इसी समय विपुल अवधिज्ञानी इन्द्र को वस्तुस्थिति का आभास हुआ और उनका आसन विचलित हो उठा। उन्होंने देवों के समक्ष संगीत और नृत्य की मण्डली के अधिपति से कहा : "भगवान् अनगार विष्णु नमुचि पुरोहित की अवमानना से अतिशय कुपित होकर तीनों लोकों को निगलने के लिए तैयार हैं। इसलिए, उन्हें गीत और नृत्योपहार से अनुनयपूर्वक शान्त करो।" इन्द्र की आज्ञा से तिलोत्तमा, रम्भा, मेनका और उर्वशी ने विष्णु की आँखों के समक्ष नृत्य किया; बाजे बजाये गये; तुम्बुरु, नारद, हाहा, हूहू और विश्वावसु ने गीत गाये। फिर, विष्णु के कान के समीप स्तुति की : “भगवन्, शान्त हों।" इसके बाद जिनेन्द्र के नाम और गुणों का कीर्तन किया। महर्द्धिक देव और वैताढ्य-श्रेणी के निवासी विद्याधर, देवसमूह-सहित इन्द्र को, भगवान् विष्णुकुमार की प्रसन्नता के निमित्त उपस्थित जानकर, शीघ्र ही देवों के पास चले आये। वे भी तथावत् स्तुति करने एवं शास्त्रानुरूप गीत गाने लगे। फिर, भौरे जिस प्रकार कमलों में रसलीन हो जाते हैं, उसी प्रकार वे विष्णु के उठे हुए चरणकमलों पर लोटने लगे।
तुम्बुरु और नारद ने सन्तुष्ट होकर विद्याधरों से कहा : “आश्चर्य, आप मनुष्य होकर भी देवों के साथ स्तुति करने की क्षमता रखते हैं !” फिर, उन्होंने विद्याधरों से कहा : “हम आपपर प्रसन्न हैं । संगीत में आपकी अतिशय अनुरक्ति होगी। सम्प्रति, आप सप्त स्वरतन्त्री से निस्सृत, गान्धारस्वरसमूहयुक्त, मनुष्यलोकदुर्लभ यथानिबद्ध विष्णुगीत धारण करें।” “आपका हमारे प्रति परम अनुग्रह है", ऐसा कहते हुए विद्याधरों ने विष्णुगीत धारण (ग्रहण) किया। __राजा महापद्म ने भी नमुचि पुरोहित के दुर्नय की बात सुनी और विष्णु के वैक्रियिक दिव्य महाशरीर को आकाश में आपूर्ण देखा, तो भयाकुल हो उठा। उसके प्राण कण्ठ में आ गये। नगर-जनपद-सहित वह संघ की शरण में गया। संघ ने शास्ति के स्वर में राजा से कहा : “तुमने अपात्र को राजगद्दी पर बिठा दिया और इस प्रकार प्रमत्त हो गये कि फिर कभी खोज-खबर नहीं ली।” यह कहकर श्रमणसंघ ने राजा से विष्णुकुमार को शान्त करने का अनुरोध किया।
फिर सभी करबद्ध होकर प्रार्थना करने लगे : “भगवन् विष्णुकुमार ! शान्त हों। संघ ने राजा महापद्म को क्षमा कर दिया है। आप अपने विशाल रूप को समेटिए। अपने पैरों का प्रस्पन्दन रोक दीजिए। आपके तेज के प्रभाव से धरती डोलने लगती है और रसातल को जाने लगती है। आपके चरणों के निकट ही श्रमणसंघ उपस्थित है।” विष्णुकुमार साधुओं की प्रार्थना के स्वर को सुन नहीं रहा था। क्योंकि, अन्तरिक्ष में स्थित उसका विशाल शरीर स्वर की गति की सीमा से भी ऊपर उठ गया था। ___ तब, वहाँ उपस्थित श्रेष्ठ श्रुतधरों ने कहा : “निश्चय ही, बारह योजन से ऊपर अन्तरिक्ष में शब्द नहीं सुनाई पड़ता है। विष्णुकुमार की श्रवणेन्द्रिय किसी ऐसे ही भाग में है, इसीलिए वह हमारे शब्द सुन नहीं पा रहे हैं। उनका शरीर तो बढ़ते-बढ़ते एक लाख योजन ऊपर उठ गया है। उतने ऊपर उठे होने पर भी वह रूप के विषय बने हुए हैं, इसलिए उनके पैरों पर आघात दीजिए।