Book Title: Vasudevhindi Bharatiya Jivan Aur Sanskruti Ki Bruhat Katha
Author(s): Shreeranjan Suridevi
Publisher: Prakrit Jainshastra aur Ahimsa Shodh Samsthan
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वसुदेवहिण्डी : भारतीय जीवन और संस्कृति की वृहत्कथा ही वहाँ ले जाओ।" दूसरा मन्त्री बोला : “कहते हैं कि दुषमाकाल में वैताढ्य पर्वत पर विद्या या वज्र का प्रभाव नहीं पड़ता। इसलिए, वैताढ्य पर्वत पर किसी गुप्त प्रदेश में राजा अपना दिन बितायें ।” तीसरा मन्त्री बोला : “भावी (होनी) का उल्लंघन नहीं किया जा सकता। सुनें, एक ब्राह्मण था। बहुत उपाय करने पर उसके एक पुत्र हुआ। उस गाँव में एक राक्षस रहता था, जिसके भोजन के निमित्त कुलक्रमागत रूप से प्रत्येक घर से एक पुरुष अपने को निवेदित करता था। जब उस ब्राह्मणपुत्र की बारी आई, तब ब्राह्मणी भूतघर के पास जाकर रोने लगी। भूत को उसपर दया हो आई। उसने ब्राह्मणी से कहा : “मत रोओ, मैं तुम्हारे पुत्र की रक्षा करूँगा।” जब ब्राह्मणपुत्र ने राक्षस के लिए अपने को निवेदित किया, तब भूतों ने उसे वहाँ से अपहत कर पहाड़ की गुफा में रख दिया और 'अमुक स्थान में तुम्हारे पुत्र को रख दिया है', ऐसा ब्राह्मणी से कहकर भूत चले गये। किन्तु, गुफा में स्थित अजगर ब्राह्मणपुत्र को निगल गया। इस प्रकार, भवितव्यता की अनुल्लंघनीयता की कथा सुनकर मन्त्री ने कहा : “घोर उत्पातों का प्रतिकार तप के द्वारा ही सम्भव है। अतएव, स्वामी की शान्ति के निमित्त हम सभी तप शुरू करें।"
चौथा मन्त्री बोला : “ज्योतिषी ने तो पोतनपुर के राजा के लिए भविष्यवाणी की है, राजा श्रीविजय के लिए नहीं। इसलिए श्रेयस्कर तो यह होगा कि राजा श्रीवजय को सात रात के लिए किसी दूसरे राज्य में रखा जाय।” तब ब्राह्मण ज्योतिषी ने कहा : “हे महामन्त्री ! आप साधुवाद के पात्र हैं। मैं भी राजा की जीवन-रक्षा के निमित्त ही आया हूँ । नियम में रहकर ही राजा विघ्न से निस्तार पायेंगे।"
ज्योतिषी की बात को स्वीकार कर राजा श्रीविजय अन्तःपुर-सहित जिनायतन में चले आये। प्रजासहित मन्त्रियों ने उस जगह वैश्रमण की प्रतिमा का अभिषेक किया और वे राज्योपचार से उसकी सेवा-पूजा करने लगे। कुशासन पर बैठे श्रीविजय ने भी सात रात तक आरम्भ और परिग्रह का त्याग कर ब्रह्मचर्यपूर्वक वैराग्य भाव से पोषध (निराहार व्रत) का पालन किया। सातवें दिन चारों ओर से विपुल सजल मेघ घिर आये। पवनवेग से मेघों का विस्तार होने लगा। बिजली चमकने लगी। भयजनक निष्ठर गर्जनस्वर गूंजने लगा। तभी, दोपहर के समय भयंकर आवाज के साथ प्रासाद और वैश्रमण की प्रतिमा को चूर-चूर करता हुआ वज्र आ गिरा। राजा के प्राण बच जाने से सबने उसका अभिनन्दन किया और पोषधशाला में 'नमो अरिहंताणं' की ध्वनि गूंज उठी (केतुमतीलम्भ : पृ. ३१५-३१६) ।
इस कथा से स्पष्ट है कि ज्योतिषी द्वारा संकेतित दुनिर्मित्त से तप और नियम के आचरण द्वारा ही बचा जा सकता है, किन्तु भवितव्यता को कोई टाल नहीं सकता है। होनी होकर रहती है। साथ ही, ज्योतिषी अपनी भविष्यवाणी व्यक्त करने में या भावी अनिष्ट के बारे में चेतावनी देने में पर्याप्त निर्भीकता से काम लेता है। इससे ज्योतिष-विद्या की गरिमापूर्ण निजता भी सूचित होती है।
एक बार पोतनपुर के राजा श्रीविजय और रानी सुतारा दोनों ज्योतिर्वन (ज्योतिर्वण) में घोर संकट में पड़ गये। फलत:, पोतनपुर में घोर उत्पात शुरू हुआ। हठात् धरती डोलने लगी। उल्काएँ गिरने लगीं। मध्याह्नकाल में ही सूर्य मन्द पड़ गया। विना किसी पर्व-दिवस (ग्रहण-दिवस) के राहु सूर्य को निगल गया। दिशाएँ धूल से ढक गईं। प्रखर हवा बहने लगी। प्रजाएँ उद्विग्न हो