Book Title: Vasudevhindi Bharatiya Jivan Aur Sanskruti Ki Bruhat Katha
Author(s): Shreeranjan Suridevi
Publisher: Prakrit Jainshastra aur Ahimsa Shodh Samsthan
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वसुदेवहिण्डी : भारतीय जीवन और संस्कृति की वृहत्कथा
गया। इसके बाद मैंने कुछ आदमियों के परिश्रमजनित उच्छ्वास का शब्द सुना। सुबह हो चुकी थी। मैंने देखा, वहीं कुछ आदमी विना अटके-भटके मुझे कहीं ले जा रहे हैं। मैं सोचने लगा : 'किसी की सलाह से किसी पुरुष द्वारा प्रयुक्त इस कृत्रिम विमान को निश्चय ही रस्सी से खींचकर लाया गया है ।' मैं विमान से नीचे उतरकर भाग चला । "
अप्रतिहता (मदनवेगालम्भ: पृ. २३८ ) : यह विद्या, अपनी संज्ञा के अनुसार, साधक को अमोघ शक्ति से सम्पन्न कर देती थी। दुस्साध्य कार्यों को भी विस्मयकारी ढंग से सुखसाध्य बना देती थी। यह विद्या परशुराम को एक नवदीक्षित साधु से प्राप्त हुई थी। इस सम्बन्ध में एक रोचक कथा चौदहवें मदनवेगालम्भ में प्राप्य है :
एक दिन इन्द्रपुर के राजा जितशत्रु की पटरानी पुत्रप्राप्ति की इच्छा से राजा के साथ जमदग्नि ऋषि के आश्रम में पहुँची । वहाँ रानी ने ऋषिपत्नी रेणुका से कहा: “ऋषि से कहो कि वे मन्त्रसिद्ध चरु (चावल से बनी देवाहुत्ति) मुझे दें, जिससे मुझे पुत्र उत्पन्न हो ।” रेणुका के आग्रह पर जमदग्नि ने दो चरु मन्त्रसिद्ध किये, जिनमें एक रेणुका को दिया और दूसरा रानी को । रानी ने रेणुका से कहा : "तुम अपना
मुझे दे दो। क्योंकि ऋषि ने अवश्य ही अपने पुत्र की प्राप्ति के निमित्त तुम्हारे चरु को विशिष्ट रूप से मन्त्रसिद्ध किया होगा । मेरे पास जो चरु है, उसे तुम ले लो।" रेणुका ने रानी से अपना चरु बदल लिया । यथासमय रेणुका ने राम (परशुराम) को जन्म दिया।
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एक बार व्यापारियों के साथ कुछ साधु चल रहे थे। जब वे सभी जंगल में प्रवेश कर गये, तब जमदग्नि ने व्यापारियों से बिछुड़े हुए रोग से अभिभूत एक नवदीक्षित साधु को देखा। वह उसे अपने आश्रम में ले आया और उसकी प्रयत्नपूर्वक सेवा करके उसे स्वस्थ बना दिया । इससे साधु ने प्रसन्न होकर जमदग्नि को 'अप्रतिहता- विद्या' प्रदान की। जमदग्नि ने उस विद्या की साधना की और उसकी सिद्धि की परीक्षा के लिए, अपने फरसे को उस विद्या से अभिमन्त्रित कर पद्मसर में छोड़ दिया। परिणामतः, सरोवर का सारा पानी सूख गया। इस प्रकार, विद्या की सिद्धि के प्रति विश्वस्त होकर जमदग्नि सुखपूर्वक जंगल में घूमने लगा ।
ज्वालवती (प्रा. 'जालवंती' ) : चौदहवें मदनवेगालम्भ की रामायण-कथा में इस विद्या का उल्लेख हुआ है। राम की सेना ने जब रामण के प्रधान योद्धाओं का विनाश कर दिया, तब रामण ने ज्वालवती विद्या की साधना प्रारम्भ की। इस विद्या की साधना का उद्देश्य राम की सेना का विनाश था । किन्तु, राम और लक्ष्मण रामण से अधिक शक्तिशाली थे । विद्यासिद्धि के बावजूद रामण, लक्ष्मण के द्वारा प्रतिनिक्षिप्त, अपने चक्र से ही मारा गया (पृ. २४४) ।
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आभोगिनी (पृ. ३३०): इस विद्या में परोक्ष की घटना का समाचार प्राप्त करने की शक्ति निहित थी । केतुमतीलम्भ की कथा है कि किन्नरगीत नगर के राजा दीप्तचूड की नातिन शान्तिमती को एक पापी विद्याधर खींच ले गया था । शान्तिमती मणिसागर पर्वत पर भगवती प्रज्ञप्ति-विद्या की साधना कर रही थी । जब वह मणिसागर पर्वत पर नहीं दिखाई पड़ी, तब 'आभोगिनी' (समाचार देनेवाली) विद्या के बल से उसकी वास्तविक स्थिति की सूचना प्राप्त की गई ।
पन्द्रहवें वेगवतीलम्भ (पृ. २४९) में भी समाचार देनेवाली विद्या की चर्चा आई है। एक बार वसुदेव को, उनकी पत्नी मदनवेगा का छद्मरूप धरकर दुष्ट विद्याधरी शूर्पणखी आकाशमार्ग । उनकी एक दूसरी विद्याधरी पत्नी वेगवती रोते-रोते बेहाल हो गई।