Book Title: Vasudevhindi Bharatiya Jivan Aur Sanskruti Ki Bruhat Katha
Author(s): Shreeranjan Suridevi
Publisher: Prakrit Jainshastra aur Ahimsa Shodh Samsthan
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वसुदेवहिण्डी की पौराणिक कथाएँ
मानवीय बोध की पूर्ण व्याख्या के लिए दोनों विधियों को समान रूप से संगत मानते थे । इस सन्दर्भ में विष्णुकुमार की कथा (गन्धर्वदत्ता - लम्भ: पृ. १२९) उदाहर्त्तव्य है :
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हस्तिनापुर के राजा पद्मरथ के दो पुत्र थे : विष्णु और महापद्म । पद्मरथ अपने ज्येष्ठ पुत्र विष्णुकुमार के साथ प्रव्रजित हो गया और महापद्म राज्य करने लगा । विष्णुकुमार अनगार धर्म का पालन करते हुए साठ हजार वर्ष तक परम दुश्चर तप करता रहा । फलतः, उसे सूक्ष्म - स्थूल आदि विविध प्रकार के रूप धारण करने, अन्तर्हित होने तथा आकाश में गमन करने का विशिष्ट सामर्थ्य प्राप्त हो गया ।
एक बार राजा महापद्म का पुरोहित नमुचि शास्त्रार्थ में साधुओं से पराजित हो गया । फलतः, वह साधुओं के प्रति विद्वेष रखने लगा। एक दिन उसने अपनी चाटुकारिता से राजा को सन्तुष्ट करके राज्य करने का वरदान माँग लिया। सारी प्रजा उसे ही राजा मानने लगी ।
एक दिन नमुचि ने वर्षावास करते हुए साधुओं को राज्य से बाहर निकल जाने की आज्ञा जारी की, कि सात रात के बाद जो भी साधु यहाँ रहेगा, वह वध्य माना जायगा। इसपर सभी साधु सम्मिलित रूप से विचार करने बैठे । संघ- स्थविर की आज्ञा से एक आकाशगामी साधु क्षण-भर में ही अंगदेश-स्थित मन्दराचल पर विष्णुकुमार के निकट उपस्थित हुए । विष्णुकुमार ने उनसे कहा : “भन्ते, आज आप विश्राम करें। कल चलेंगे।” जब साधु सो गये, तब सोई हुई - हालत में ही उन्हें साथ लेकर विष्णुकुमार आकाशमार्ग से हस्तिनापुर पहुँच गया। साधुओं ने उसे नमुचि के अनाचार की बात बताई ।
विष्णुकुमार ने नमुचि से कहा कि वर्षाकाल में धरती अनेक जीवों से भर गई है, इसलिए साधुओं के संचरण के विरुद्ध पड़ती है । वर्षाकाल के बाद ये साधु आपके राज्य का त्याग कर देंगे। नमुचि ने विष्णुकुमार के निवेदन पर कुछ भी ध्यान नहीं दिया। तब, विष्णुकुमार ने नमुचि से कहा कि यदि आपने साधुओं को भगाने की ही ठान ली है, तो मेरी एक बात मानिए, निर्जन स्थान में मुझे तीन पग भूमि दीजिए। वहीं रहकर साधु अपना प्राण - विसर्जन करेंगे। नमुचि राजी हो गया ।
सहसा विष्णुकुमार रोष से प्रज्ज्वलित हो उठा। धरती नापने के लिए अपने शरीर को विराट् आकार में परिणत करके उसने अपना पैर उठाया। नमुचि डरकर विष्णु के पैरों पर गिर पड़ा और बोला : “भगवन् ! मेरा अपराध क्षमा करें।” उसके बाद विष्णुकुमार ने 'धुवागीति' पढ़ी और क्षणभर में दिव्य रूप धारण कर लिया ।
विष्णु का दिव्य शरीर बढ़ता ही चला गया । भयविह्वल लोग विराट् शरीर के अन्तराल में शिलाखण्ड, पर्वतशिखर, बड़े-बड़े पेड़ और विविध आयुध फेंकने लगे। लेकिन, ये सभी वस्तुएँ विष्णु के हुंकार की हवा से छितराकर चारों ओर गिरने लगते थे। विष्णु के अदृष्टपूर्व महाशरीर को देखकर किन्नर, किम्पुरुष, भूत, यक्ष, राक्षस, ज्योतिष्क देव, महोरग आदि भय से भाग चले और किंकर्तव्यविमूढ़ होकर कातर भाव से आर्त्तनाद करते हुए हड़बड़ी में एक-दूसरे पर गिरने लगे। सभी खेचर प्राणी भय से काँपने लगे । अतिशय विस्मित होते हुए उन्होंने देखा कि संचरणशील मन्दराचल की तरह विष्णु का दिव्य शरीर क्षणभर में एक लाख योजन विस्तृत हो गया। ऋद्धि की बहुलता के कारण विष्णु का शरीर प्रज्वलित अग्निपुंज की तरह और मुख