Book Title: Vasudevhindi Bharatiya Jivan Aur Sanskruti Ki Bruhat Katha
Author(s): Shreeranjan Suridevi
Publisher: Prakrit Jainshastra aur Ahimsa Shodh Samsthan
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वसुदेवहिण्डी : भारतीय जीवन और संस्कृति की बृहत्कथा प्रज्ञप्तिविद्या-सम्पन्न प्रद्युम्न द्वारवती पहुँचा और एक भेड़ के साथ कृष्ण के घर में प्रवेश किया। उसके प्रणाम करने के बाद कृष्ण ने पूछा : “बालक ! किसलिए आये हो?"“आप भेड़ का लक्षण जानते हैं। यदि सुलक्षण भेड़ है, तो इसे स्वीकार कीजिए।” प्रद्युम्न ने कहा । सत्त्वपरीक्षा के खयाल से कृष्ण ने अंगुली के संकेत से भेड़ को अपनी ओर बुलाया। प्रद्युम्न के इंगित पर भेड़ ने कृष्ण के पास जाकर उन्हें अपने आसन से नीचे गिरा दिया और उनके जानुप्रदेश में पीड़ा पहुँचाई। उसके बाद प्रद्युम्न बोला : “महाराज ! और कुछ जानना चाहते हैं, तो कहिए।” और फिर हँसता हुआ घर के भीतर चला गया।
__ इसी प्रकार, प्रद्युम्न ने ब्राह्मण-बालक का छद्मरूप धरकर सत्यभामा को भी परेशान किया। फिर, छोटा साधु का रूप धरकर रुक्मिणी को भी तंग किया।
ब्राह्मण-बालक के रूप में प्रद्युम्न जब सत्यभामा के घर के द्वार पर उपस्थित हुआ, तब वहाँ मालाकार ने उसे फूल का मुकुट पहनाया और कुब्जा ने अंगराग का लेपन किया। दाइयों ने सत्यभामा से निवेदन किया : “कोई तेजस्वी रूपवान् ब्राह्मण-बालक भोजन माँग रहा है।" सत्यभामा ने दासियों को आदेश दिया, “भरपूर भोजन कराओ।" ब्राह्मण-बालक आसन पर बैठा। सोने के पात्र में भोजन परोसा गया। भोजन परोसते ही वह उसे चट कर जाता और सत्यभामा से शिकायत भी करता कि दासियाँ स्वयं खा जाती हैं, मुझे नहीं देतीं। सत्यभामा ने पुन: आदेश दिया : "जितना चाहता है, उतना दो।” दासियाँ कहने लगी : "स्वामिनी ! ब्राह्मण-रूप में यह वडवानल इस पूरे घर को निगल जायगा !"
इसी बीच सत्यभामा ने सुना कि पुलिन्दों ने विवाहोत्सव को ध्वस्त कर दिया। उधर प्रद्युम्न ने कहा : “यदि मुझे भरपूर भोजन नहीं मिलेगा, तो मैं रुक्मिणी के घर चला जाऊँगा।" सत्यभामा झुंझला उठी : “मैं दूसरे काम में लगी हूँ, तुम चाहे रूपा के घर जाओ या सोना के घर।" ब्राह्मण बालक-रूपधारी प्रद्युम्न आचमन करके वहाँ से निकलकर चला गया और छोटा साधु का रूप धरकर रुक्मिणी के पास पहुँचा । रुक्मिणी ने उसकी वन्दना की और आमन्त्रित भी किया। क्षुद्रकरूपधारी प्रद्युम्न ने कहा : “मैंने बहुत बड़ा उपवास किया है। सोचता हूँ, मैंने माँ का दूध पहले नहीं पिया है। इसलिए, पारण के निमित्त मुझे जल्दी खीर दो।” रुक्मिणी ने छद्मरूपधारी प्रद्युम्न से क्षण भर रुकने को कहा। इसी बीच वह कृष्ण के सिंहासन पर जाकर बैठ गया। रुक्मिणी ने कहा : “यह देवता के द्वारा स्वीकृत आसन है। तुम्हारा कोई अनिष्ट न हो, इसलिए दूसरे आसन पर बैठो।” प्रद्युम्न बोला : “मुझ जैसे तपस्वी पर देवता का कोई प्रभाव नहीं पड़ता।" इसके बाद रुक्मिणी ने दासियों से जल्दी खीर तैयार करने को कहा। प्रद्युम्न ने प्रज्ञप्ति-बल से अग्नि स्तम्भित कर दी। खीर पकती ही नहीं थी।
इसी बीच सत्यभामा ने नाई भेजकर रुक्मिणी से कहलवाया कि केश मुड़वाकर भेजो। लघुतापसरूपधारी प्रद्युम्न ने नाई से कहा : “मुण्डन करना जानते हो?" नाई के 'हाँ' कहने पर प्रद्युम्न ने फिर पूछा : “बदरमुण्डन जानते हो?" नाई के 'नहीं' कहने पर प्रद्युम्न ने उससे कहा : “आओ, तुम्हें बदरमुण्डन बताता हूँ।" उसके बाद प्रद्युम्न ने नाई के, चमड़ा-सहित सिर के बाल को छीलकर उसके हाथ में रख दिया और कहा : “इसी को 'बदरमुण्डन' कहते हैं ।" नाई अपना, लोहू-लुहान सिर लिये लौट गया।