Book Title: Vasudevhindi Bharatiya Jivan Aur Sanskruti Ki Bruhat Katha
Author(s): Shreeranjan Suridevi
Publisher: Prakrit Jainshastra aur Ahimsa Shodh Samsthan
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: वसुदेवहिण्डी का स्रोत और स्वरूप
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वसुदेव जब मणिरत्न से खचित प्रांगणवाले वासघर में स्वच्छ और सुगन्धित वस्त्र से आवृत बिछावन पर बैठे, तब सुवर्णनिर्मित देवी जैसी रूपवती प्रभावती वहाँ आई और मोतियों की लड़ी की भाँति आँसू गिराती हुई वसुदेव से बोली : आप अक्षत और सम्पूर्ण शरीर के साथ मृत्युमुख से बाहर निकल आये, यह मेरे लिए बड़ी प्रसन्नता की बात है।” “देवी की उपासना करके तुमने ही तो मुझे जीवनदान दिलाया है।” वसुदेव ने प्रभावती की श्लाघा करते हुए कहा । उसके बाद धाई ने प्रभावती से कहा: “बेटी ! तुम भी शीघ्र नहा लो । अब भोजन के बाद कुमार को देखोगी ।” धाई की बात मानकर प्रभावती चली गई ।
उसके बाद वसुदेव को दिव्य भोजन कराया गया, फिर ताम्बूल से उनका सत्कार किया गया। उनके मनोरंजन के लिए नाटक प्रदर्शित किया गया और रात्रि में संगीत सुनते-सुनते ही वह प्रेमपूर्वक सो गये । फिर, प्रातः काल में मंगलगीत के साथ जगे ।
शुभ मुहुर्त में राजा गान्धार ने वसुदेव को प्रभावती सौंप दी। विधिवत् वैवाहिक अनुष्ठान पूरा हुआ। विपुल सम्पत्ति दहेज में दी गई। मानों अलकापुरी में कुबेर के समान रहते हुए वसुदेव प्रभावती के साथ सुखभोग करने लगे (बाईसवाँ प्रभावती - लम्भ) ।
एक दिन वसुदेव संगीतमय सन्ध्या बिताकर रात में सुखपूर्वक सोये हुए थे कि कोई अज्ञात रूप से उन्हें आकाश में उड़ा ले गया। जब उनकी नींद खुली, तब उन्होंने चाँदनी के प्रकाश में किसी क्रूरमुखी स्त्री को देखा । वसुदेव ने उसकी कनपट्टी पर मुक्के से जोरदार प्रहार किया। वह स्त्री चोट खाते ही उनके प्रतिद्वन्द्वी हेफ्फग के रूप में बदल गई और उसने उन्हें छोड़ दिया । वह विशाल जलराशि में आ गिरे ।
वसुदेव नदी के उत्तरी तट पर ऊपर हुए और वहीं रात बिताकर सूर्योदय होने पर वहाँ से थोड़ी दूर पर स्थित एक आश्रम में चले गये। आश्रम के महर्षि ने अर्घ्य से उनको सम्मानित किया । महर्षि से उन्हें ज्ञात हुआ कि यह स्थान गोदावरी के तट पर बसा हुआ श्वेत जनपद है । वहाँ उनकी भेंट पोतनपुर के राजमन्त्री सुचित्र से हुई । वह उन्हें राजदरबार में ले गया। वहाँ उन्होंने राजदरबार के समक्ष उपस्थित, सार्थवाह की दो पत्नियों के आपसी झगड़े को सुलझाने में राजा की मदद की। राजा उनपर प्रसन्न हो गया और उसने अपनी पुत्री भद्रमित्रा और सोम पुरोहित की पुत्री सत्यरक्षिता दोनों से उनका पाणिग्रहण करा दिया। दोनों प्रियतमाओं को संगीत और नृत्य की शिक्षा देते हुए वसुदेव सुखपूर्वक वहाँ रहने लगे ( तेईसवाँ भद्रमित्रा और सत्यरक्षिता- लम्भ) ।
एक बार वसुदेव कोल्लकिर नगर देखने को समुत्सुक हो उठे और अपनी उक्त दोनों प्रियाओं को विना सूचना दिये अकेले ही निकल पड़े। दक्षिण-पश्चिम की ओर चलते हुए वह कोल्लकिर नगर पहुँचे गये और वहाँ के मालाकारों के अतिथि बने । उन्होंने (वसुदेव ने) बड़ी कलात्मकता के साथ एक माला ( श्रीमाला) तैयार की और एक मालाकार की अप्राप्तयौवना पुत्री के द्वारा उस माला को कोल्लकिर नगर की राजकन्या पद्मावती के पास भेजा। माला गूंथने की कला में निपुण वसुदेव पर राजकन्या रीझ गई ।
इसके बाद वहाँ का राजमन्त्री अपने राजा पद्मरथ के प्रतिनिधि के रूप में आया और वसुदेव को रथ पर बैठाकर अपने घर ले गया। वहाँ वसुदेव ने मन्त्री से हरिवंश की कथा सुनाई । ज्योतिषी ने राजा से कहा था कि उसकी पुत्री पद्मावती का विवाह ऐसे व्यक्ति से होगा, जिनके चरण-कमलों