Book Title: Vasudevhindi Bharatiya Jivan Aur Sanskruti Ki Bruhat Katha
Author(s): Shreeranjan Suridevi
Publisher: Prakrit Jainshastra aur Ahimsa Shodh Samsthan
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वसुदेवहिण्डी का स्रोत और स्वरूप
कर बैठे हुए सुमित्र नामक परिवाजक को देखा। उन्होंने परिव्राजक उनका स्वागत करते हुए उन्हें विश्राम करने का आग्रह किया ।
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वन्दना की और उसने
उसके बाद परिव्राजक के साथ वसुदेव का प्रकृति - पुरुष के सम्बन्ध में तर्क-वितर्क हुआ । परिव्राजक ने सांख्यदृष्टि और वसुदेव ने जैनदृष्टि से परस्पर विचार-विनिमय किया । वसुदेव की वाचोयुक्ति से परिव्राजक जब सन्तुष्ट हो गया, तब उसने पुरुषों से द्वेष रखनेवाली गणिका ललितश्री, जिसका दूसरा नाम सोमयशा था, के पूर्वभव की कथा सुनाई।
तब वसुदेव ने ललितश्री के हृदय को प्रभावित करनेवाला एक चित्र बनाया, जिसमें उन्होंने स्वयं अपने को भी अंकित किया, और उसे दासी के द्वारा ललितश्री गणिका के पास भेज दिया । चित्र में अंकित वसुदेव को देखकर वह रीझ गई और पुरुषों के प्रति बना रहनेवाला उसका द्वेष गल गया । वह वसुदेव के लिए समुत्सुक हो उठी। अन्त में, सुमित्र साधु ने ललितश्री के साथ वसुदेव का विवाह करा दिया। तब वह उस गणिका (ललितश्री) के साथ विहार करते हुए सुखभोग में लीन हो गये (छब्बीसवाँ ललितश्री - लम्भ) ।
एक दिन वसुदेव ललितश्री को विना सूचित किये अकेले ही निकल पड़े और कुशल जनों से बसाये गये कोशल- जनपद में जा पहुँचे। वहाँ किसी अदृष्ट देवी ने उनसे कहा : “वसुदेव ! मैं रोहिणी कन्या तुम्हें सौंप रही हूँ । तुम उसे स्वयंवर में देखकर ढोल बजा देना ।” देवी के -आदेशानुसार वह रिष्टपुर जा पहुँचे और वहाँ ढोलकियों के साथ एक ओर खड़े रहे। इसी समय उन्हें यह घोषणा सुनाई पड़ी: " रात बीतने के बाद, कल प्रात:काल राजा रुधिर की बेटी और मित्रदेवी की आत्मजा कुमारी रोहिणी का सजधज के साथ पधारे हुए राजाओं के साथ स्वयंवर होगा । "
रोहिणी ‘रोहिणी' नाम की विद्यादेवी की पूजा किया करती थी । विद्यादेवी ने सन्तुष्ट होकर उसे आदेश दिया था कि वह दसवें दशार्ह वसुदेव की पत्नी बनेगी और ढोल बजानेवाले के रूप में वह उसे पहचानेगी । स्वयंवर में, जिसमें वसुदेव के ज्येष्ठ भ्राता समुद्रविजय भी पधारे थे, जब सभी राजा मंचासीन हुए, तब वसुदेव ढोल हाथ में लेकर ढोलकियों के बीच में जाकर बैठ गये । रोहिणी जब स्वयंवर में आई, तब वसुदेव ने ढोल बजाकर रोहिणी को उद्बोधित किया । रोहिणी ने सभी राजाओं को छोड़ ढोलकिया के रूप में बैठे वसुदेव के गले में वरमाला डाल दी ।
क्षुब्ध क्षत्रिय राजाओं ने रोहिणी के इस व्यवहार से अपने को अपमानित अनुभव किया । वे राजा रुधिर (रोहिणी के पिता) से युद्ध करने लगे । रुधिर की रक्षा के लिए वसुदेव को विद्याधरों की सहायता उपलब्ध हो गई ।
युद्ध के क्रम में जब समुद्रविजय और वसुदेव आमने-सामने हुए, तब दोनों ने एक दूसरे को पहचान लिया । अस्त्र त्याग कर वसुदेव ज्यों ही समुद्रविजय के चरणों में झुके, त्योहीं उन्होंने भी अस्त्ररहित होकर उनको अँकवार में भर लिया। लम्बे अन्तराल के बाद अनायासप्राप्त अलभ्यलाभ-स्वरूप इस सुखद भ्रातृमिलन का समाचार सुनकर वसुदेव के शेष - भाई अक्षोभ, स्तिमित, सागर आदि भी वहाँ आ पहुँचे ।
समुद्रविजय जब रिष्टपुर से लौटने लगे, तब उन्होंने अनुज वसुदेव को उपदेश दिया : “कुमार ! अब तुम्हारा हिण्डन (परिभ्रमण) करना व्यर्थ है। अब तुम मेरी आँखों से दूर मत रहो ।