Book Title: Vasudevhindi Bharatiya Jivan Aur Sanskruti Ki Bruhat Katha
Author(s): Shreeranjan Suridevi
Publisher: Prakrit Jainshastra aur Ahimsa Shodh Samsthan
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वसुदेवहिण्डी : भारतीय जीवन और संस्कृति की बृहत्कथा दिया गया। इसपर प्रद्युम्न ने वसुदेव से कहा : “देखिए, शाम्ब ने अन्तःपुर में बैठे-बैठे १०८ वधुएँ प्राप्त कर लीं, जबकि आप सौ वर्ष तक हिण्डन करते रहे।” इसके उत्तर में वसुदेव ने कहा : “शाम्ब तो कुएँ का मेढक है, जो सरलता से प्राप्त भोग से सन्तुष्ट हो गया। मैंने तो पर्यटन करते हुए अनेक प्रकार के सुख और दुःखों का अनुभव किया। मैं मानता हूँ कि दूसरे किसी पुरुष के भाग्य में इस तरह का उतार-चढ़ाव न आया होगा (पृ. ११०)।"
वस्तुतः, वसुदेव के इस छोटे-से सटीक वाक्य में उस महान् युग की हलचल का बीज समाहित है, जिस युग में व्यापारोद्यत सार्थवाह विकल हृदय से पश्चिम के यवन देश से पूर्व के यवद्वीप और सुवर्णभूमि तथा श्रीलंका के विशाल क्षेत्र को दिन-रात रौंदते रहते थे। बाणभट्ट के शब्दों में कहा जाय, तो उनके पैरों में मानों कोई द्वीपान्तरसंचारी सिद्ध लेप लगा हुआ था। ये यह मानते थे कि द्वीपान्तरों की यात्रा से ही लक्ष्मी की प्राप्ति होती है : 'अभ्रमणेन श्रीसमाकर्षणं भवति।'
'मत्स्यपुराण' के लेखक ने समुद्र को ललकारते हुए कहा है : हे उत्ताल तरंगोंवाले महार्णव, आजकल लंका आदि द्वीपों में निवास करनेवाले राक्षस ही तुम्हारे जल में आते-जाते रहे हैं, जिसके कारण उसमें कीचड़ उत्पन्न हो गया है। अब अपने उस जल को शिलाओं से जड़े हुए प्रांगण में बदल डालो; क्योंकि देवाधिदेव शिव अपने परिवार के साथ सन्तरण करना चाहते हैं। (मत्स्यपुराण : १५४. ४५५)।
'महाभारत' के सभापर्व (४९. १६) में लिखा है कि उस समय पूर्व से पश्चिम और पश्चिम से पूर्वसमुद्र तक सार्थवाहों (यात्रियों) का तांता लगा रहता था। 'दिव्यावदान' में तो यहाँतक कहा गया है कि महासमुद्र की यात्रा किये विना अर्थोपार्जन की आशा ऐसी है, जैसे ओस की बूंदों से घड़ा भरने की।
वसुदेव ने प्रद्युम्न को जो उत्तर दिया, वह मानव-हृदय के इन भावों के सर्वथा अनुकूल था। निरन्तर पर्यटन और दूर-दूर देशों का परिभ्रमण यही भारत के स्वर्णयुग का जीवनोद्देश्य बन गया था। एक बार नहीं, कई-कई बार लोग जोखिम उठाकर समुद्रों की यात्रा करते थे। अवश्य ही, सातवाहन-युग की सामुद्रिक यात्राओं के वातावरण में जिन कहानियों की संरचना हुई और 'बृहत्कथा' के रूप में गुणाढ्य ने जिनका विशद संग्रह किया, उनकी मूलभावना इसी प्रकार की जल-स्थल-सम्बन्धी हलचलों से परिपोषित थी। कहना न होगा कि उनका भरपूर प्रभाव 'वसुदेवहिण्डी' तथा 'बृहत्कथा' की दूसरी उत्तरकालीन वाचनाओं पर पड़ा।
उपर्युक्त प्राचीन पौराणिक कथा के मन्तव्यों का विवेचन करते हुए इस सन्दर्भ में डॉ. वासुदेवशरण अग्रवाल ने बड़ी विशदता से प्रकाश डाला है। निश्चय ही, गुणाढ्य से सोमदेव तक भारतीय कथाओं के विस्तृत भौगोलिक क्षितिज के उल्लेख का प्राथमिक महत्त्व तो है ही, ततोऽधिक सांस्कृतिक मूल्य भी है। यथावर्णित विस्तृत भौगोलिक क्षितिज में 'चतुर्दिक् परिभ्रमण' की अर्थ-व्यंजना के लिए लोकभाषा में 'हिण्डी' इस छोटे सार्थक शब्द का निर्माण किया गया। तदनुसार, संघदासगणिवाचक ने गुणात्म कृत 'बृहत्कथा' की शैली को तो अपनाया, किन्तु अपने ग्रन्थ का नाम बदलकर 'वसुदेवहिण्डी' कर दिया। १. द्रष्टव्य : 'कथासरित्सागर' (पूर्ववत), भूमिका, पृ.१०-१२