Book Title: Vasudevhindi Bharatiya Jivan Aur Sanskruti Ki Bruhat Katha
Author(s): Shreeranjan Suridevi
Publisher: Prakrit Jainshastra aur Ahimsa Shodh Samsthan
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वसुदेवहिण्डी : भारतीय जीवन और संस्कृति की बृहत्कथा अलग से परिभाषा उन्होंने नहीं दी है : 'आख्यानादयश्च कथाख्यायिकयोरेवान्तर्भावान्न पृथगुक्ताः।' (तत्रैव)
आचार्य नलिनजी के शब्दों में, विशद गल्पात्मक गद्यमय आख्यान ही 'उपन्यास' की संज्ञा प्राप्त करता है और जिसका अनगढ़ पूर्वरूप अत्यन्त प्राचीन साहित्य में मिल जाता है। इस दृष्टि से 'वसुदेवहिण्डी' को यदि प्राचीन उपन्यास भी कहा जायगा, तो अत्युक्ति नहीं होगी। फिर भी, इतना निश्चित है कि न केवल भारतीय कथा-साहित्य, अपितु विश्वकथा-साहित्य में पांक्तेय 'वसुदेवहिण्डी' हिन्दी में औपन्यासिक शिल्प की संरचना के प्रारम्भिक रूप का प्रतिनिधित्व तो अवश्य ही करती है। इसलिए, यह प्राचीन उपन्यास का पहला महत्त्वपूर्ण उदाहरण है। इसमें प्राकृत-भाषा ने नया जन्म ग्रहण किया है। इसमें न केवल जीवन और ज्ञान के एक नवीन प्रवाह . की बहुलता है, अपितु मानव-स्वभाव के परिपुष्ट तथ्यों से उपलब्ध उल्लास का भी प्राचुर्य है। संघदासगणी बौद्धिक दृष्टि से अतिशय समृद्ध गल्पकार थे। इसलिए, ऐकान्तिक बौद्धिकता और जीवन की विषमता के प्रति जागरूक तत्कालीन गल्पकारों में उनकी द्वितीयता नहीं है। 'वसुदेवहिण्डी' की कथाओं में वस्तुवादिता और अध्यात्मचिन्तन का अद्भुत समन्वय हुआ है। इसलिए, संघदासगणी एक ओर कामकथा या यौनकथा के द्वारा वस्तुवाद का प्रबल समर्थन करते हैं, तो दूसरी ओर उनके द्वारा उपन्यस्त धर्मकथाओं में स्थूल वस्तुवाद के प्रति उनका विद्रोह भी स्पष्ट है। कहना न होगा कि संघदासगणी ने 'वसुदेवहिण्डी' द्वारा कथा-जगत् में एक क्रान्तिकारी प्रयोग किया है, जिसका बहुत सारा श्रेय गुणाढ्य की 'बृहत्कथा' को है, जो भारतीय गल्प-साहित्य की समृद्धतम परम्परा से जुड़ी हुई है। संघदासगणी ने 'वसुदेवहिण्डी' की रचना करके कथा और आख्यायिका की प्राकृत गद्य-शैली को अपने चरम उत्कर्ष पर ले जाकर प्रतिष्ठित कर दिया, जिसका परवर्ती वैभवशाली विकास आचार्य हरिभद्र की ‘समराइच्चकहा' या बाणभट्ट की 'कादम्बरी' या 'हर्षचरित' या फिर वादीभसिंह सूरि की 'गद्यचिन्तामणि' की संस्कृत-गद्यशैली में दृष्टिगत होता है।
_ 'वसुदेवहिण्डी' विभिन्न प्रकार की लोककथाओं का विशाल भाण्डार है। किन्तु, वसुदेव की मूलकथा तो प्रत्यक्ष ही पौराणिक वीरगाथा है। इसलिए, इसे ऐतिहासिक लोककथा या उपाख्यान की संज्ञा दी जा सकती है। 'चैम्बर्स इनसाइक्लोपीडिया' (खण्ड ६, पृ. ५८८) के अनुसार, ऐतिहासिक लोककथा अथवा उपाख्यान नाम से एक ओर अंशतः पौराणिक कथाओं का बोध होता है, तो दूसरी ओर यह शब्द ऐतिहासिक वीरों की ओर संकेत करता है, जिनके शौर्य से परिपूर्ण कार्यों से जन-जीवन या लोक-कल्पना सदा प्रभावित रही है। पौराणिक लोककथा का सम्बन्ध यद्यपि इतिहास से रहता है, तथापि वह सच्चा इतिहास न होकर विकृत इतिहास होता है। पुराणकार ऐतिहासिक तथ्यों को अपनी काव्यात्मक कल्पना और सौन्दर्यात्मक अभिरुचि के अनुसार परिवर्तित करने में प्रायः स्वतन्त्रता या स्वच्छन्दता से काम लेता है। या फिर, वह मुख्य ऐतिहासिक कथा के समर्थन में अवान्तर कथाओं, विशेषतः धर्मकथाओं को उपस्थित करता है, जिससे मुख्यकथा की ऐतिहासिकता विडम्बित हो जाती है।
उपर्युक्त परिप्रेक्ष्य को ही ध्यान में रखकर आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी ने कहा है कि इस देश में इतिहास को ठीक आधुनिक अर्थ में कभी नहीं लिया गया। बराबर ही ऐतिहासिक व्यक्ति
१. द्र. मानदण्ड : आचार्य न. वि. शर्मा, पृ. १२८