Book Title: Vasudevhindi Bharatiya Jivan Aur Sanskruti Ki Bruhat Katha
Author(s): Shreeranjan Suridevi
Publisher: Prakrit Jainshastra aur Ahimsa Shodh Samsthan
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वसुदेवहिण्डी की पौराणिक कथाएँ
विदर्भ- जनपद के कुण्डिनपुर नगर के राजा भीष्मक की रानी विद्युद्वती से उत्पन्न दो सन्तानें थीं- पुत्र रुक्मी और पुत्री रुक्मिणी । कृष्ण के निकट नारद ने रुक्मिणी के रूप- गुण की अद्वितीयता की चर्चा की और फिर रुक्मिणी से भी कृष्ण के गुण का बखान किया ।
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इसी बीच दमघोष के पुत्र शिशुपाल के साथ रुक्मिणी विवाह की बात स्थिर हुई । इस समाचार को सुनकर रुक्मिणी की फुआ ने उससे एकान्त में कहा: “रुक्मिणी बेटी ! तुम्हें स्मरण हैन, बचपन में अतिमुक्तक ( उसी जन्म में मोक्ष पानेवाला) आकाशचारी कुमार श्रमण ने कहा था कि 'तुम वासुदेव कृष्ण की अग्रमहिषी बनोगी।" "स्मरण है", रुक्मिणी ने कहा ।
फुआ ने आश्वस्त करते हुए रुक्मिणी से कहा: “मुनि का वचन अन्यथा नहीं हो सकता । बलदेव और वासुदेव अन्त में अवश्य सुनते हैं । वे इतने प्रभावशाली हैं कि समुद्र ने उन्हें रास्ता दिया था, कुबेर ने उनके लिए द्वारवती नगरी का निर्माण किया था और रत्न की वर्षा भी की थी। वासुदेव कृष्ण शिशुपाल और जरासन्ध का वध करेंगे, ऐसी लोकश्रुति है । तुम्हें चेदिपति शिशुपाल के लिए दे दिया गया है, इसलिए शिशुपाल का भी वध करके कृष्ण तुम्हारा पाणिग्रहण करेंगे । तुम अपने को निन्दनीय या दयनीय मत समझो। कहो तो, कृष्ण के पास तुम्हारा सन्देश भिजवाऊँ ।”
“पिता के बाद तुम्हारा ही तो मुझपर अधिकार है। मेरे कल्याण के लिए तुम्हीं प्रमाण हो ।” रुक्मिणी ने कहा । इसके बाद रुक्मिणी की फुआ ने एक पुरुष (लेखवाहक) के द्वारा कृष्ण के पास प्रच्छन्न लेख भेजा, जिसमें विवाह की निश्चित तिथि की सूचना थी और शिशुपाल को धोखा देने का गुप्त संकेत भी अंकित था । लेखवाहक ने कृष्ण से यह भी संकेत कर दिया कि वरदा नदी-तटवर्त्ती नागमन्दिर में पूजा के व्याज से रुक्मिणी पहुँचेगी, वहीं वह उससे मिलें ।
लेखवाहक कुण्डिनपुर लौट आया और उसने रुक्मिणी एवं उसकी फुआ कृष्ण के निश्चित आगमन की बात कही और उनके वर्ण, चिह्न आदि भी बतला दिये । विवाह के निमित्त शिशुपाल भी वरदा नदी के पूर्वी तट पर ससम्मान आकर ठहरा। रुक्मिणी सजधज कर भद्रक नामक अन्तःपुर-रक्षक के साथ नागमन्दिर में पहुँची । पूजा के बहाने वह बार-बार मन्दिर से बाहर आ
ती थी। कुछ क्षण बाद दूत के निर्देशानुसार रुक्मिणी ने ऊँचाई में लहराती ताल और गरुड़ से अंकित बलदेव तथा कृष्ण की ध्वजा देखी । रुक्मिणी की फुआ ने कहा: “देवता प्रसन्न हैं । आओ, धीरे-धीरे मन्दिर की प्रदक्षिणा करो। "
वासुदेव कृष्ण ने रुक्मिणी को देखकर सारथि से जल्दी-जल्दी रथ हाँकने को कहा। सारथि नागमन्दिर के पास रथ ले आया । और, कृष्ण ने अपना परिचय देते हुए रुक्मिणी को उठाकर अपने रथ पर बैठा लिया। भद्रक ने कृष्ण को ललकारा औरं धनुष तान दिया । कृष्ण ने उससे कहा : “जान मत दो। रुक्मी को जाकर समाचार दो कि राम और कृष्ण ने रुक्मिणी का हरण कर लिया । "
इधर भय से चिल्लाता हुआ भद्रक रुक्मी पास पहुँचा और उधर दोनों भाई परिजन समेत दूर निकल गये । रुक्मी ने प्रतिज्ञा की कि बहन को विना मुक्त कराये नगर नहीं लौटूंगा । और फिर, बहुत बड़ी सेना के साथ वह रथ पर सवार होकर चल पड़ा ।
रुक्मिणी को उदास देखकर कृष्ण ने पूछा: "क्यों देवी ! मेरे साथ जाना तुम्हें पसन्द नहीं ?" रुक्मिणी बोली : “मेरा भाई धनुर्वेद का ज्ञाता है, सेना के साथ आया है । आप तो दो ही आदमी हैं ।