Book Title: Vasudevhindi Bharatiya Jivan Aur Sanskruti Ki Bruhat Katha
Author(s): Shreeranjan Suridevi
Publisher: Prakrit Jainshastra aur Ahimsa Shodh Samsthan
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___ वसुदेवहिण्डी : भारतीय जीवन और संस्कृति की बृहत्कथा 'धम्मिल्लचरित' भी कहा गया है और 'धम्मिल्ल' शब्द की व्युत्पत्ति करते हुए संघदासगणी ने लिखा है : “जं से माऊए धम्मे दोहलो जातो तेण होतु 'धम्मिल्लो' ति (पृ. २७) ।” अथवा “जम्हा णं अम्हं इमम्मि दारए गब्भगए धम्मदोहलो आसी, तं होउ णं एयस्स दारगस्स नामधेयं 'धम्मिल्लो त्ति (पृ. ७६)।” अर्थात्, गर्भ की स्थिति में उसकी माता को धर्माचरण के विषय में दोहद उत्पन्न हुआ था, अतएव पुत्र का नाम 'धम्मिल्ल' रखा गया।
गुणान्च की 'बृहत्कथा' के नैपाली और कश्मीरी नव्योद्भावनों—'बृहत्कथाश्लोकसंग्रह' एवं 'बृहत्कथामंजरी' तथा 'कथासरित्सागर' में 'धम्मिल्लचरित' का उल्लेख नहीं है । वस्तुत:, 'धम्मिल्ल हिण्डी' की कथा का वातावरण सार्थवाहों के संसार से लिया गया है। इसे अपने-आपमें एक स्वतन्त्र रचना माना जा सकता है, जिसकी मूल संरचना का आधार नरवाहनदत्त या वसुदेव के कई विवाहों की कथाओं से गृहीत है। डॉ. अग्रवाल ने 'धम्मिल्ल' शब्द का अर्थ केशबन्ध मानते हुए, इसकी व्युत्पत्ति के क्रम में अपने अनुमान की बैसाखी के सहारे, इसके 'द्रमिल' या 'तमिल' शब्द से विकसित होने की सम्भावना की है, जो कष्ट-कल्पना ही है। तत्त्वत:, 'धर्मिल' शब्द का ही प्राकृत रूप धम्मिल्ल' है । 'धम्मिल्ल' के अतिरिक्त 'धम्मिल' पाठ भी मिलता है, जिसकी ओर 'वसुदेवहिण्डी' के सम्पादक चतुरविजय-पुण्यविजय ने संकेत किया है। यद्यपि, उनकी सम्पादकीय पादटिप्पणी (पृ. २७) में मुद्रण-दोष रह गया है।
___ 'धम्मिल्लहिण्डी' या 'धम्मिल्लचरित' के अन्तर्गत अगडदत्त मुनि की आत्मकथा मिलती है। इसका भी स्वतन्त्र अस्तित्व है और यह परवत्ती जैनकथाग्रन्थों में पद्यबद्ध या गद्यबद्ध. रूप में अनेक बार आवृत्त हुआ है। हिन्दी में प्रचलित 'अगड़धत्त' शब्द इसी 'अगड़दत्त' का विकसित रूप है। जीवन की हर दिशा में अप्रतिहत गति रखनेवाला सदाप्रखर और अपराजेय व्यक्ति ही 'अगड़धत्त'
कहलाता है। विद्या के क्षेत्र में भी 'अगड़धत्त' विद्वान् होते हैं । अगड़दत्त मुनि का चरित भी अपनी ___बौद्धिक सुतीक्ष्णता और प्रतिभा की प्रखरता की दृष्टि से परम साहसिक (एडवेंचरस) है । वस्तुत:, 'धम्मिल्लहिण्डी' को 'वसुदेवहिण्डी' की कथा-संरचना-पद्धति की विशिष्टता की अभिज्ञापक पूर्वपीठिका के रूप में स्वीकृत किया जा सकता है।
'वसुदेवहिण्डी' कथाकृति के प्रथन या उसकी संरचना की पद्धति श्वेताम्बर जैन परम्परा के अनुसार है। इसीलिए, श्वेताम्बर जैन विद्वान् इस ग्रन्थ से सुपरिचित रहे हैं और उन्होंने इस ग्रन्थ के नामोल्लेखपूर्वक उद्धरण भी प्रस्तुत किये हैं। इस ग्रन्थ का नाम तो 'वसुदेवहिण्डी' है, किन्तु कथाकार संघदासगणी ने इसे 'वसुदेवचरित' कहा है और ऋषभनाथ तीर्थंकर की वन्दना करने के बाद पंचनमस्कार मन्त्र-रूप मंगलाचरण का उपन्यास किया है। यद्यपि, ऋषभ-वन्दना के बाद पंचनमस्कार मन्त्र का कोई औचित्य नहीं है, तथापि इसके सम्पादक मुनिद्वय ने अनेक प्रतियों में इसे अंकित देखकर मूलपाठ को ही आदर दिया है।
पंचनमस्कार के बाद कथाकार ने लिखा है : “अणुजाणंतु मं, गुरुपरंपरागयं वसुदेवचरियं णाम संग्रहं वन्नइस्सं ।"... तत्थ ताव सुहम्मसामिणा जंबुनामस्स पढमाणुओगे तित्थयर-चक्कवट्टिदसारवंसपरूवणागयं वसुदेवचरियं कहियं ।” अर्थात्, “मैं गुरु-परम्परागत 'वसुदेवचरित' नामक संग्रह का वर्णन करूँगा। . . प्रथमानुयोग में तीर्थंकर, चक्रवर्ती और दशार-वंश के राजाओं का