Book Title: Vasudevhindi Bharatiya Jivan Aur Sanskruti Ki Bruhat Katha
Author(s): Shreeranjan Suridevi
Publisher: Prakrit Jainshastra aur Ahimsa Shodh Samsthan
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वसुदेवहिण्डी : भारतीय जीवन और संस्कृति की बृहत्कथा
शलाकापुरुषोपम शारीरिक संघटना वसुदेव के चक्रवर्त्तित्व की सूचना तो देती ही थी, उनके उत्तमबुद्धि होने की भी परिचायिका थी (भद्रमित्रा - सत्यरक्षिता- लम्भ: पृ. ३५३) ।
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कथा-संक्षेप :
वस्तुतः, वसुदेव का अतिमानुष मदनमनोहर रूप ही उनके घर से भागने और विशाल भारत के भ्रमण करने का कारण बना। वसुदेव के पूर्वभव के बारे में संघदासगणिवाचक ने राजा अन्धकवृष्ण और सुप्रतिष्ठ साधु के संवाद के माध्यम से बड़ी मनोरंजक कथा उपन्यस्त की है (द्र. श्यामाविजयालम्भ : पृ. ११४ - १२० ) । वसुदेव, राजा अन्धकवृष्णि के दसवें पुत्र थे 1 विन्ध्यपर्वत की तराई में अवस्थित सिंहगुहा नाम की चोरपल्ली के सेनापति अपराजित की पत्नी वनमाला से दस पुत्र उत्पन्न हुए: सुरूप, विरूप, मन्दरूप, साध्य, अवध्य, दाह, विदाह, कुशील एवं करंक | बहुत पाप अर्जित करने के कारण ये सभी सातवीं पृथ्वी पर नारकी हो गये। वहाँ से गत्यन्तर प्राप्त करके उन्होंने जल, स्थल और आकाशचारी चतुरिन्द्रिय, त्रीन्द्रिय और द्वीन्द्रिय तिर्यग्योनियों में जन्म ग्रहण किया और वहाँ के दुःखों को भोगकर साधारण (अनेक जीवोंवाले कन्द आदि) और बादर (स्थूल) वनस्पतियों में उत्पन्न हुए । वनस्पति-योनियों में बहुत दिनों तक वास करने के बाद, अपने कर्मसंचय क्षीण करके वे भद्रिलपुर के राजा मेघरथ, जिसकी रानी का नाम सुभद्रा और पुत्र का नाम दशरथ था, शासनकाल में, एक को छोड़, शेष नौ वनस्पति- जीव, श्रमणोपासक धनमित्र श्रेष्ठी की पत्नी विजयनन्दा के गर्भ से पुत्र रूप में उत्पन्न हुए, जिनके नाम थे : जिनदास, जिनगुप्त, जिनदेव, जिनदत्त, जिनपालित, अर्हद्दत्त, अर्हद्दास, अर्हद्देव और धर्मरुचि । धनमित्र सेठ के दो पुत्रियाँ भी हुईं प्रियदर्शना और सुदर्शना। उसी समय मन्दर नाम के साधु गण-सहित, भद्रिलपुर में शीतलनाथ जिनदेव की जन्मभूमि पर पधारे। अपने पिता के साथ क् नवों भाइयों ने मन्दर साधु के निकट प्रव्रज्या ले ली। राजा मेघरथ ने भी अपने पुत्र दशरथ को राज्यभार सौंपकर निष्क्रमण किया। गर्भवती विजयनन्दा ने शेष दसवें वनस्पति- जीव को धनदेव नामक पुत्र के रूप में जन्म देकर उसका बारह वर्षों तक लालन-पालन किया और उसे उसके पिता धनमित्र श्रेष्ठी के स्थान पर प्रतिष्ठित कर वह (विजयनन्दा) अपनी दोनों बेटियों के साथ प्रव्रजित हो गई । धनमित्र श्रेष्ठी और राजा मेघरथ तो मोक्षगामी हुए, शेष सभी ( धनदेव-सहित दसों भाई) अच्युत नामक स्वर्ग में देवता हुए।
विजयनन्दा अपने पुत्रों और पुत्रियों से पुनः सम्बन्ध की बात सोचकर उनके प्रति स्नेहानुरक्त " बनी रही और पुत्रियों के साथ शरीर त्याग करके उसने भी अच्युत कल्प में ही देवत्व प्राप्त किया ।
विजयनन्दा अच्युत कल्प से च्युत होकर मथुरा नगरी के राजा अतिबल की रानी सुनेत्रा के गर्भ से भद्रा नाम की पुत्री के रूप में उत्पन्न हुई । यही भद्रा जब बड़ी हुई, तब उसका विवाह अन्धकवृष्णि से हुआ। उक्त अच्युत कल्पवासी देवता ( विजयनन्दा के गर्भ से उत्पन्न जिनदास आदि दस पुत्र) वहाँ से च्युत होकर भद्रा के गर्भ से ही समुद्रविजय आदि (दस दशार्ह) नामधारक पुत्र के रूप में उत्पन्न हुए और उसकी ( पूर्वभव की विजयनन्दा की) दोनों पुत्रियाँ (प्रियदर्शना और सुदर्शना) पुनः उनके गर्भ से कुन्ती और माद्री के नाम से उत्पन्न हुईं। इन दोनों का क्रमशः पाण्डु और दमघोष के साथ विवाह हुआ ।