Book Title: Vasudevhindi Bharatiya Jivan Aur Sanskruti Ki Bruhat Katha
Author(s): Shreeranjan Suridevi
Publisher: Prakrit Jainshastra aur Ahimsa Shodh Samsthan
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वसुदेवहिण्डी का स्रोत और स्वरूप नहीं। दो यक्षिणियाँ मुझे आकाशमार्ग से लिये जा रही थीं। बीच में ही मेरे लिए दोनों आपस में लड़ने लगीं। इसी क्रम में उनसे छूटकर मैं नीचे गिर पड़ा हूँ।" इसके बाद वसुदेव उन ग्वालों के निर्देशानुसार, राजा कपिल द्वारा शासित वेदश्यामपुर नामक नगर के समीपवर्ती गिरिकूट गाँव के निकट पहुँचे। वहाँ उन्होंने पुष्करिणी में स्नान किया और अपने आभूषणों को कपड़े के छोर में बाँधकर गाँव के भीतर प्रवेश किया। वहाँ के मन्दिर में अनेक ब्राह्मण-बालक वेदाभ्यास में निरत थे। वहाँ उन्होंने स्कन्दिल छद्मनाम से अपना परिचय दिया।
ग्रामनायक की पुत्री सोमश्री बड़ी रूपवती थी। ज्योतिषियों ने उसके बारे में भविष्यवाणी की थी कि वह श्रेष्ठ पुरुष की पत्नी बनेगी। मन्दिर में प्रतिष्ठित केवलज्ञानी बुध और विबुध साधुओं की प्रतिमाओं के समक्ष जो श्रेष्ठ पुरुष वेद के प्रश्नों का उत्तर देगा, उसी को कन्या दी जायगी।
एक ब्राह्मण-बालक से पूछकर वसुदेव वहाँ के प्रमुख उपाध्याय ब्रह्मदत्त के घर पहुँचे । उपाध्याय और उपाध्यायानी ने वसुदेव का स्नेहवत्सल भाव से स्वागत किया। वसुदेव ने, दक्षिणा के रूप में, ब्राह्मणी को कंगन प्रदान किया। सन्तुष्ट ब्राह्मणी ने अपने पति ब्राह्मण ब्रह्मदत्त को दक्षिणा में प्राप्त कँगने दिखाये । वसुदेव ने उपाध्याय ब्रह्मदत्त से आर्य और अनार्य दोनों प्रकार के वेदों का ज्ञान प्राप्त किया।
ग्रामप्रधान देवदेव (सुरदेव) की परीक्षा परिषद् में वसुदेव ने अस्खलित भाव से वेद का सस्वर पाठ किया और उसका अवितथ रूप से परमार्थ भी बताया। वसुदेव के प्रश्नोत्तर से सभी वेदपारग सन्तुष्ट हो गये। सभी उनके देवत्वपूर्ण व्यक्तित्व की प्रशंसा करने लगे। उसके बाद शुभ दिन में सोमश्री के साथ वसुदेव का विवाह हो गया और गिरिकूट ग्राम में रहते हुए वह सुखपूर्वक समय बिताने लगे (पाँचवाँ सोमश्री-लम्भ)।
गिरिकूट ग्राम में रहते हुए वसुदेव ने एक दिन एक ऐन्द्रजालिक विद्याधर को देखा। उन्होंने उससे कृष्ण चतुर्दशी की रात्रि में 'शुम्भा' और 'निशुम्भा' नाम की आकाश में उड़ने और वहाँ से नीचे उतरने की दो विद्याएँ प्राप्त की । फिर, वह सोमश्री से अनुमत होकर और उसे इस बात को किसी से न कहने की चेतावनी देकर सन्ध्या में निकल पड़े। ऐन्द्रजालिक विद्याधर उन्हें पहले पहाड़ की गुफा.में ले गया, फिर वे दोनों खड़ी चोटीवाले पहाड़ों से भरे प्रदेश में पहुँचे। पूजा की विधि समाप्त की गई। उसके बाद विद्याधर ने उनसे कहा: “विद्या की आवृत्ति शुरू करो । एक हजार आठ आवृत्ति पूरी होते ही विमान उतरेगा और तुम नि:शंक उसमें चढ़ जाना । विमान जब सात-आठ तल ऊपर पहुँच जायगा, तब निवर्तनी विद्या की, इच्छानुसार, आवृत्ति करना, विमान नीचे उतर आयगा । मैं तुम्हारी रक्षा के निमित्त निकट में ही थोडी दर पर रहँगा।" यह कहकर विद्याधर चला गया।
जप पूरा होते ही सचमुच एक सुसज्जित विमान उतरा । वसुदेव उस विमान में जा बैठे। विमान एक दिशा की ओर उड़ चला। जब पहाड़ पर विमान खड़खड़ करता हुआ लड़खड़ाने लगा, तब उन्होंने आवर्तनी (निवर्तनी) विद्या का जप प्रारम्भ किया, फिर भी विमान आगे ही बढ़ता चला गया। इसके बाद उन्होंने कुछ आदमियों के परिश्रमजनित उच्छ्वास का शब्द सुना। सुबह हो चुकी थी। वह समझ गये कि किसी की सलाह से किसी पुरुष द्वारा प्रयुक्त इस कृत्रिम विमान को निश्चय ही रस्सी से खींचकर लाया गया है। वसुदेव विमान से नीचे उतरकर चल पड़े। जब लोगों ने उनका पीछा करना शुरू किया, तब वह जल्दी-जल्दी भाग चले । जहाँ पीछा करनेवाले लोग बहुत पीछे छूट जाते थे, वहाँ वह थोड़ा सुस्ता लेते थे। इस प्रकार, बहुत देर तक पीछा करने पर भी लोग उन्हें पकड़ नहीं सके।