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"Owing to paucity of materials of positive nature, the exact date of the begining of Jainism in Orissa can not be determined. However from legendary and traditional accounts and indirect references it can be reasonabaly traced back to a period much earlier than that of the rise of Buddhism under Gautam Buddha."
तीर्थकर और कलिंग :
इस अवसर्पिणी काल में हुए २४ तीर्थकरों में से - त्र-षभदेव, आदिनाथ अथवा प्रथम तीर्थकर का संबंध कलिंग अथवा प्राचीन उडीसा की सांस्कृतिक इतिहास के साथ अत्यधिक है, ऐसा विद्वानों का विश्वास है। विद्वानों का मत है कि खारवेल के हाथीगुम्फा शिला लेख में जिस कलिंग जिन का उल्लेख हुआ है उसका संबंध त्र-षभदेव से है, क्यों कि उडीसा के विभिन्न स्थानों में उनकी पूजा होती थी। आज भी खुदाई करने पर आदिनाथ की मूर्तियाँ वर्तमान उडीसा मे अत्यधिक यत्रतत्र सर्वत्र प्राप्त होती है। जिस प्रकार शत्रुञ्जय के त्र-षभदेव शत्रुञ्जय जिन कहलाते हैं उसी प्रकार कलिंग के त्र-षभदेव कलिंग जिन कहलाते हैं। ऐसा मानना इसलिए भी असम्भव नहीं है क्यों कि जैनपुराण बतलाते है कि त्र-षभनाथ का समवसरण कलिंग देश में आया था और उन्होंने कलिंग में धर्मोपदेश दिया थ। आदिपुराण २५/२८७ में आचार्य जिनसेन ने कहा भी हे :
काशीमवन्ति कुरू कोशलसुह्यपुण्ड्रान्। चेद्यङ्गवङ्गमगधन्ध्रकलिंगभद्रान्।। पाञ्चालमालवदशार्णदिर्भदेशान्। सन्मार्गदेशनपरो विजहारधीरः।।
एन के साहु ने दावे के साथ कहते हैं कि खण्डगिरि की गुफाओं में त्र-षभदेव को बारम्बार प्रस्तुत किया गया है। खण्डगिरि की चोटीपर स्थित जैन मंदिर आदिनाथ के नाम से प्रसिद्ध है। खारवेल का पिथुड को बैलों से न जुतवा कर, गधों से जुतवाना भी यही सिद्ध करता है कि व-षभदेव के चिन्ह स्वरूप वृषभ के साथ धार्मिक भावनाएँ जुड़ी हुई थीं। इन सब प्रसगों से यह कहना समुचित है कि प्रथम तीर्थंकर अथवा जिन वृषभदेव ई.पू. छठी शताब्दी के पहले उस समय कलिंग
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