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जानकारी नहीं होती है । सशक्त प्रमाणों के अभाव में हम यह मानने के लिए विवश हैं कि मृत व्यक्ति के शरीर को जलाया करते थे। वर्तमान में भी जैन मुर्दे को जलाते हैं ।
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एस. एन. राजगुरु अपनी कृति इन्सक्रिप्सनस ऑफ उड़ीसा (भाग ६) में लिखते हैं कि बामनधाटी की प्लेट से ज्ञात होता है कि सराकों को ग्रामों को देने का अंकन सुरक्षित है। खिज्जग के उत्तराखण्ड के देव कुंड और कोरापिन्डिया ग्रामों में रहने वाले सराकों को जो कपड़े बुनने का काम करने से बुन कर कहलाते थे, टिमंदिर, ननकोल, जम्बपोडका और वसन्त ग्राम दान में दिये गये थे । भद्रक जिले के चरम्पा नामक ग्राम में एक बट वृक्ष की खोह में अनेक जैन मूर्तियाँ प्राप्त हुईं जो उड़ीसा राज्य संग्रहालय में लाई गई हैं। वहाँ की मूर्तियों के सर्वेक्षण के क्रम में मैने भी एक बहुत गहरी पोखरी देखी, जो पानी से भरी हुई थी। उसके पूर्वी किनारे पर बट वृक्ष के नीचे एक मूर्ति पार्श्वनाथ की प्राप्त हुई, जो खण्डगासन में थी । उन की पूजा में सम्मिलित हो कर वे सहयोग देते थे ।
ढेंकनाल जिले के सदर सब-डिबीजन में बहुत बड़ी मात्रा में सराकों की वस्तियाँ पाई गई हैं। कन्ध पाटना, राजुआ पाटना, अयुखुमा पाटना, सराक पाटना, नुआगाँव पाटना, चम्पा पाटना, जेनासाह पाटना आदि ग्रामों को सराकों ने बसाया था । उन में से कुछ ग्रामों में सराक कपड़े बुना करते थे । उन में से जो अत्यधिक सम्पन्न हैं वे विभिन्न प्रकार का व्यापार करते थे। आज भी यही स्थिती है।
कटक जिले के आठगढ़ बांकी, बरम्बा और तिगिरिया क्षेत्रों के अरखा पाटन, रगड़ी, नुआ पाटना, जरी पाटना और मानिआबन्ध के गाँवों में रहने वाले इन सराकों का व्यवसाय बुनाई करना है। उन में से कुछ पूर्व में स्थानीय उपयोगी वस्तु शिल्प दस्तकारी करने में आसक्त रहते थे। कुछ कृषि करते थे। इन गाँवों के सभी सराक अन्यत्र रहने वाले सराक बन्धुओं की आदतो और रीति रिवाजों का कर्मण्तता पूर्वक अनुकरण करते थे। उन के धार्मिक संबंध जैनधर्म के साथ थे । तिगिरिया क्षेत्र के हाटमाल गांव से तीर्थंकर की एक मूर्ति प्राप्त हुई थी। जो नरसिंहपुर क्षेत्र के रूपनाथ मंदिर में तीर्थंकरों की प्रतिमायें देखी जा सकती हैं। भूतकाल में तीर्थंकरों की दो प्रतिमायें भी प्राप्त हुई थी जो
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