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ड. सराक : धार्मिक एवं सांस्कृतिक विमर्श
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उड़ीसा में जैन स्मारकों की चर्चा करने के पश्चात् सराकों की चर्चा किये विना स्मारकों की चर्चा अधूरी रह जायेगी । सराक शब्द श्रावक का विगड़ा हुआ रूप है जैनधर्म में मद्य पीना, मांस खाना, जुआ खेलना, वेश्या गमन, परस्त्री गमन, शिकार खेलना और चोरी करना ये सात व्यसन माने गाये हैं । मद्य, मांस और मधुका त्याग करना, तथा अहिंसाणु सत्याणु अचौर्याणु, ब्रह्मचर्याणु और अपरिग्रह गुण व्रतों का पालन करना ये आठ जैन धर्म में मूल गुण ग्रहस्थों के बतलाये गये हैं। अत: सात व्यसन का त्याग करना और मूल गुणों का पालन करने वाले जैन गृहस्थ श्रावक कहलाता है। जैन श्रावक न तो रात में भोजन करता है और न बिना छना पानी पीता है। जीवों पर दया करता है और नित्य प्रतिदिन देव वन्दना करता है । पीपल, ऊमर, कठूमर, बड़ और पाकर जैसे क्षुद्र उदम्बर फलों को जैन श्रावक नहीं खाता है। वह तीन गुणव्रतों अर्थात् दिगव्रत, देशव्रत और अनर्थ दंडव्रत तथा ४ शिक्षाव्रतों अर्थात् भोग-उपभोग परिमाण व्रत, सामायिक, प्रोषधोपवास और वैयावृत्य का भी जैन श्रावक पालन करता है। उक्त अनिवार्य लक्षण वाला श्रवक त्यागी, यति, मुनि और श्रमण की अपेक्षा सब से नीची श्रेणी का होता है ।
प्राचीन उड़ीसा में सराक शब्द का प्रयोग प्राचीन मनुष्यों के ऐसे वर्ग के लिए हुआ जो वर्तमान उड़ीसा के विभिन्न भागों में पाये जाते हैं, और जो आर्थिक दृष्टि से पिछड़े हुए हैं। उड़ीसा के अतिरिक्त बिहार के छोटा नागपुर, मान भूमि और सिंहपुर के क्षेत्रों में और बंगाल के सन्निकट के क्षेत्रों में भी व्यापक रूप से सरक रहते हैं। उड़ीसा में सराकों को वर्तमान में पुरातन जैनों का अवशेष कहा जा सकता है। उड़ीसा में प्राचीन जैन मंदिरों के अवशेष, दोष पूर्ण मूर्तियाँ और स्थानीय दन्त कथायें इन जैन श्रावकों के अस्तित्व की गाथा गाते हैं। हस्तकलाकारी इन की विशिष्ट पहिचान है।
म्यूरभंज जिले के अन्तर्गत सराकों की जीर्ण-शीर्ण वस्तियाँ अभी भी विद्यमान है। मयुरभंज के सन्निकट स्वीचिंग नामक ग्राम में बहुत पुरातन काल से सराकों की वस्तियाँ थीं । खीचिंग और बारीपदा संग्रहालय की ग्यालिरियों में जैनधर्म के
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