Book Title: Udisa me Jain Dharm
Author(s): Lalchand Jain
Publisher: Joravarmal Sampatlal Bakliwal

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Page 128
________________ पर रहते हैं। शेष दिनों में वे विहार करते रहते हैं। वर्षावास में उन को, जप-तप, सामायिक, स्वाध्याय आदि संयमित आचरण पूर्ण साधना निर्वाध पूर्वक सम्पन्न हो और उन को किसी प्रकार का खेद न हो, इस मांगलिक दृष्टि से श्रमणोपासक, अणुव्रती और धार्मिक राजा खारवेल और उन के उत्तराधिकारियों ने उक्त जुड़वा पहाड़ियों पर गुंफाओं का निर्माण करवाया था। यही कारण है कि चर्चित गुफायें साक्ष होते हुए भी शांति प्रदायक और त्यागिओं-तपस्यिों के विश्राम तथा धार्मिक अनुष्ठान के योग्य हैं। इन भव्य गुंफाओं का अनेक सदियों (ई.पू.२री शताब्दी के अंतिम समय से ई.सन् १६ वीं शताब्दी) तक अवश्य ही जैन साधुओं ने उपयोग किया। जैन धर्म मोक्षमूलक धर्म है। मोक्ष की प्राप्ति या मोक्ष की साधना में मंदिर-मूर्ति आदि उपकारक साधन हैं। उनके मंदिर मूर्ति आदि प्राय: घनघोर जंगलों से युक्त पहाडियों पर या उनके ढलान में हुआ करते थे। हाथी गुम्फा शिलालेख में उदयगिरि और खण्डगिरि की पहाड़ियों पर एक ओर स्तूप या शरीरावशेष या निषिधिकाओं की पूजा करने का उल्लेख है। वहीं मूर्ति पूजा करने की प्रथा का सशक्त उल्लेख हुआ है। जो आकारवान होता है और जिसे स्पर्शन, चक्षु आदि इन्द्रियों के द्वारा जाना जाता है, वह मूर्ति है। हाथी गुम्फा के शिलालेख में कलिंगजिन की मूर्ति को पद्मराजानन्द द्वारा ले जाने की चर्चा से सिद्ध है कि नन्द राजा के बहुत पूर्व से जैनधर्म में मूर्ति पूजा की प्रथा थी। सम्भवत: ई.पू५ वीं शताब्दी में जैनधर्म में मूर्ति पूजना प्रारम्भ हो गया होगा। यद्यपि उस समय प्रचुर मात्रा में मूर्तियों का निर्माण नहीं हुआ था। यही कारण है कि ७वीं शताब्दी से पूर्व की प्राचीन मूर्तियां उड़ीसा के जैनस्थालों पर अभीतक उपलब्ध नहीं हो सकी हैं। चैत्य वृक्ष की पूजाः खंडगिरि और उदयगिरि की गुफाओं की क्रमश: अनन्त गुंफा और जयविजय गुम्फाओं से ज्ञात होता है कि जैन धर्म में चैत्य वृक्षों की पूजा की प्रथा मूर्ति पूजा के पहले थी। चैत्य वृक्ष भी एक प्रकार की मूर्ति है, क्यों कि उन में आकार होता है। चैत्य वृक्ष जिन प्रतिमाओं के आधार भूत होते हैं इसलिए पूज्य हैं। ये वृक्ष वनस्पति कायिक नहीं बल्कि पृथ्वी कायिक होते हैं। तिलोय पण्णत्ति में कहा गया है कि ११५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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