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मगध की राजधानी के रक्षक गोरथगिरि नामक किले को नष्ट करके सेना ने वहाँ के निवासियों को आतंकित (व्याकुल) कर दिया था, लेकिन वे अपने लक्ष्य में सफल नहीं हुए थे। दूसरे आक्रमण के समय वे विजयश्री प्राप्त करने में सफल रहे। तत्कालीन मगध के राजा बहसतिमित (वृहस्पति मित्र) ने आत्मसमर्पण कर खारवेल राजा के चरणों की पूजा की थी। रानी गुंफा में उनके आत्मसमर्पण का दृश्य उत्कीर्णित है। खारवेल मगध और अंग की अपार संपत्ति ले कर तथा कलिंग जित को वापिस कलिंग लाये थे। इस प्रकार मगध और अंग राज्यों पर उनका अधिकार हो गया था। कहा भी है: मागधं व राजानं वहसतिमितं पादे वंदापयति। नंद राजनीतं कालिंग जिन संनिवेसं गह रतन परिहारे हि अंग मगधवसुंच नयति। पंक्ति१२ . ३. युवन राजा को खदेड़ना :
इसी प्रकार उन खारवेल राजा ने जैन धर्म रक्षा की के लिए जैन धर्म के गढ़ समझे जाने वाले मथुरा और मगध पर अधिकार करने के इच्छुक युवन राजा (डिमित) को खदेड़कर भगाने में सफलता प्राप्त की थी। भारत पर विजयः
अपने राजप्रशासन के १०वें वर्ष में खारवेल राजा ने भारतवर्ष को जीतने के लिए विशाल सेना प्रेषित की थी। यहाँ भारतवर्ष से तात्पर्य उत्तर भारत से है। इस विजय यात्रा में उसे सुनहली सफलता मिली। पराजित होने वाले और भगेरू राजाओं से उन्हें मणि, रत्न, आदि अपार धनराशि प्राप्त हुई थी। उत्तरापथ (पंजाव आदि) के राज्यों पर इनका अधिकार हो गया था। इस पराक्रमशाली राजा ने युद्ध या आक्रमण के समय शुद्ध राजनीति के परिचायक दंड, संधि और साम नीति का प्रयोग किया था। उन्होंने गंदी या कुनीति स्वरूप भेद नीति का कभी भी सहारा नहीं लिया। कहा भी है : दसमे च वसे दंड संधि सामयो भरधवस पठानं मही जयनं कारापयति...।
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