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को स्थापित करया था । कहा भी है :
ॐ श्री उद्योत केशरी विजय राज्य सम्वत पांच
श्री कुमार पव्वत स्थाने जिन्न वापि जिन्न
इसण उद्योतित तस्मिन थाने चतुर्विसति तीर्थंकर स्थापित प्रतिष्ठा काले हरिओप जसनंदिक
श्री पारसस्यनाथस्य कम्म खया:
उक्त अभिलेख में यह भी कहा गया है कि प्रतिष्ठापित चौबीस तीर्थंकरों की पूजा करने के लिए हरिओप जसनन्दि को नियुक्त किया गया था। उक्त अभिलेख में खंडगिरि को कुमार पर्वत पहली बार कहा गया है। इस कथन से प्रकट होता है कि पुरातन काल में उदयगिरि को कुमारी पर्वत और खण्डगिरि को कुमार पर्वत के नाम से जाना जाता था।
इस सोम वंश राजाओं के राज काल में खण्डगिरि कुमार पर्वत मठावासीय गुंफाओं के प्रकोष्ठों की विभाजक दीवाल को हटाकर और फर्श गहरा खोद कर उनकी ऊँचाई बढ़ा कर और तीर्थंकरों की मूर्तियों को गुंफाओं की दीवालों पर उत्कीर्णित कर गुफाओं को मंदिर में परिवर्तित करवाया गया था । प्राप्त मूर्तियों, ध्वंसित मंदिरों और इमारतों के संरचनात्मक या ढाँचा गत बहुमात्रा में प्राप्त अवशेषों से ज्ञात होता है कि उक्त वंश के राजा के शासन काल में निर्माण के कार्य हुए थे। इस कालावधि से संबंधित बहुत बडी मात्रा में जैन मूर्तियाँ उड़ीसा के विभिन्न स्थानों यथा भद्रक बालेश्वर जिला के समीपवर्ती स्थान चरम्पा, बालेश्वर जिले के अयोध्या, म्यूरभञ्ज जिले के खीचिंग आरै केउँझर, कोरापुट, कटक और पुरी जिले के अनेक स्थानों में खोजने पर उपलब्ध हुई है। इस से सिद्ध है कि सोमवंश के समय में जैनधर्म का चतुर्दिक विकास हुआ था। मंदिर बनाये गये थे और मूर्तियों की प्रतिष्ठायें की गई थीं । वास्तविकता यह है कि शैवधर्म की प्रमुखता होने के वाबजूद भी शैव धर्मावलम्बियों ने जैन धर्म का विरोध नहीं किया था। इसके विपरीत अनेक विशेष अवसरों पर शैवों ने अपने शिव मंदिरों में जैन मूर्तियों की प्रतिष्ठा करने की आज्ञा भी दी थी। भुवनेश्वर के मुक्तेश्वर नामक शिव मंदिर में उक्त अबधि में स्थापित तीर्थंकरों की लघु मूर्तियां उक्त कथन को सुस्पष्ट करती है । अतः निष्कर्ष
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