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उक्त विवरणों से स्पष्ट है कि खारवेल ने अतुल धन व्यय कर सुन्दर इमारतों, मीनारों, स्तूपों और खम्भों (मान स्तम्भों ) का निर्माण करया था।
उपासक :
राजा खारवेल के हाथीगुम्फा शिलालेख के विश्लेषण से सष्ट है कि उनहोंने तेरह वर्षों तक कलिंग देश पर राज्य किया था। उन्होंने अपने राज्य का विस्तार किया था। उनका राज कोष भी अनन्त माणिमोतियों आदि से परिपूर्ण था। अपने राजकर्तव्यों और उपलब्धियों से वे पूर्ण संतुष्ट थे । यही कारण है कि १४ वीं पंक्ति से १७ वीं पंक्ति तक के अध्ययन से हम निष्कर्ष निकालने के लिए विवश है कि अब उनका कोई शत्रु राजा नहीं रह गया था। इसलिए अब उन्होंने अपनी जीवन की धारा को मोड़ दिया था । वे केवल पाक्षिक श्रावक ही नहीं थे अब वे उत्तम कोटि के जैन गृहस्थ अर्थात् उपासक हो गये थे। आगमिक शब्दावली में नैष्ठिक श्रावक हो गये थे। अब उनका झुकाव धार्मिक कृत्यों की ओर हो गया था। वे अर्हतों के परम पुजारी और उपासक हो गये थे । कहा भी है: “तेरसमे च बासे... राजभितिनं चिनवतानं वासासितानं, पूजानुरत उवासग खारवेल सिरिना जीव देह सायिका परिखाता । "
अभी तक जो धन सेना और विजययात्राओं में व्यय होता था, अब वह धन उन्होंने धार्मिक अनुष्ठानों में खर्च करना आरम्भ कर दिया था। जैन धर्म को उन्होंने जीवन में उतारना आरम्भ कर दिया था। जिस कुमारी पर्वत पर भगवान् महावीर का धर्म प्रवर्तन हुआ था और जहाँ उनका विजय चक्र महोत्सव मनाया गया था वहीं उन्होंने त्यागी, व्रती श्रमणों के लिए आश्रय स्थलों का निर्माण कराया था। उन्हें विवेक या भेद विज्ञान हो गया था । जीव और पुद्गल के स्वरूप भेद को अपने जीवन में उतार लिया था । चिमनलाल जैचन्द शाह ने उत्तर भारत में जैन धर्म (पृ.१५६) में कहा भी है : राजा खारवेल निरा नाम का ही जैनी नहीं था अपितु उसने इस धर्म को अपने नित्य नैमित्तिक जीवन में उचित स्थान दिया था | राज्य विस्तार से संतुष्ट होकर उसने धार्मिक कायों में अपनी शक्ति मोड़ दी थी .I
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