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को, जिसे ई.पू. चौथी शताब्दी में नन्द राजा ने बनवाया था, बढ़ाकार तनसुली के रास्ते से कलिंग नगरी तक लाये थे, ताकि जनता को पानी की
असुविधा न हो। ४. हाथीगुम्फा शिलालेख की १० वी पंक्ति में बतलाया गया है कि तत्कालीन ३८
लाख मुद्रा व्यय कर खारवेल ने अपने राजत्व के ९वें वर्ष में एक राजमहल का निर्माण करवाया था जिसका नाम महाविजय प्रासाद था। कहा भी है : “नवमे च वसे राजा निवासं महाविजय पासादं कारयति अठतिसाय सतसहसेहि।" पंक्ति १०.५. पिथुड या पिथुड खारवेल के पहले जैनियों का तीर्थस्थान था। उत्तराध्ययन सूत्र में इसे बंदरगाह बतलाया गया है। लेकिन यह जैन क्षेत्र के रूप में प्रसिद्ध था। संभव है यहाँ कलिंग जिन की मूर्ति प्रतिष्ठित थी। उक्त मूर्ति का अपहरण हो जाने के वाद उस पर किसी जैनेतर राजा ने अधिकार कर दूषित कर दिया था। खारवेल ने उसका पुनरूद्धार किया था। गधों से जुतवाकर उसे पुन: पवित्र कराया। उक्त कार्य उन्होंने अपने प्रशासन के ग्यारहवें वर्ष में किया था। पंक्ति - २२। उक्त शिलालेख की तेरहवीं पंक्ति से सूचित होता है कि उन्होंने कलिंग की तत्कालीन दो हजार मुद्राओं से बहुत मजबूत और सुन्दर गोपुर और शिखरों का
निर्माण कराया था। ७. उन्होंने कुमारी पर्वत पर श्रमणों (अर्हतों) के विश्राम हेतु आश्रय स्थलों अर्थात्
गुफाओं को अपने शासन के १३ वें वर्ष में बनवाया था। (देखें पंक्ति -१४)। . राजा खारवेल ने अपनी सिंहपथ रानी की इच्छानुसार एक सभागार का निर्माण, अर्हत की निसीदिका (अवशेषों) के समीप और पर्वत की ढलाई में कराया था। इस निर्माण के लिए अनेक योजन दूरी से ३५ लाख शिलायें लाई गई थी। इसका फर्श पाटल रंग का था। इनके स्तम्भों में वैडूर्य मणि जडे हुए थे। इस सुन्दर इमारत के बनवाने में ७५ लाख तत्कालीन मुद्राएँ खर्च हुई थीं। यह महल वही होना चाहिए जिसे वर्तमान में रानीगुम्फा कहा जाता है।
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