Book Title: Udisa me Jain Dharm
Author(s): Lalchand Jain
Publisher: Joravarmal Sampatlal Bakliwal

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Page 51
________________ (ग) खारवेलोत्तर जैनधर्म : राजा खारवेल के पश्चात् जैनधर्म की उड़ीसा में क्या स्थिति रही यह सुनिश्चित रूप से कह पाना कठिन ही नहीं बल्कि असम्भव है। क्यों कि तत्कालीन उड़ीसा का इतिहास अन्धकार में है। यद्यपि ई.पूप्रथम शताब्दी तक जैन बौद्ध और ब्राह्मण धर्मों का उड़ीसा में अस्तित्व था, लेकिन खारवेल के पश्चात् भी बहुत समय तक जैनधर्म राजधर्म के रूप में बना रहा। लेकिन बौद्ध धर्म और शिव धर्म के तेजी से उदित होने के कारण जैनधर्म को हानि उठानी पड़ी। विद्वानों का मानना है कि ई.सन के प्रारम्भ में जैन धर्म का प्रभुत्व उड़ीसा में समाप्त हो गया था अर्थात् जैसा एकछत्र राज्य उड़ीसा में पहले था अब नहीं था। दूसरे शब्दों में उड़ीसा में जैनधर्म का युग समाप्त हो गया था। इसका तात्पर्य यह कदापि नहीं है कि अब जैनधर्म का उड़ीसा में अस्तित्व ही नहीं बचा था। अब जैनधर्म अन्य धर्मों के साथ मिलकर अस्तित्व में बना रहा। जैनधर्म हिन्दू धर्म के प्रति अविरोधी और अप्रतिद्वन्द्वी होने के कारण महत्वपूर्ण सत्ता बनाये रहा। दूसरे शब्दों में जैनधर्म ने हिन्दू धर्म के साथ कभी भी विरोध भाव नहीं रखा। इसी महत्वपूर्ण नीति के कारण जैनधर्म उड़ीसा में बनारहा। उपर्युक्त भावना से काम करने के कारण उड़ीसा में जैन धर्म अन्य धर्मों के साथ निरन्तर अस्तित्व में बना रहा। ई.सन् दूसरी शताब्दी में जैनधर्म के भाग्य ने पुन: पल्टा खाया। बुद्ध धर्म का महत्त्वपूर्ण विस्तार उस समय हो गया, जब सम्पूर्ण कलिंग पर मुरुण्डों का अधिपत्य था। मुरुण्डों ने ई. सन् की दूसरी शताब्दी में किसी समय कलिंग पर आक्रमण किया था। उस समय सातवाहन राजा का राज्य था। उनका पूर्वी भारत में शासन था और पाटलीपुत्र उनकी राजधानी थी। मुरुण्ड के अंतिम राजा गुहशिव के बौद्धधर्म से प्रभावित होने के कारण जैन निग्रन्थ कलिंग छोडकर पाटलीपुत्र चले गये थे। ई.सन् ३-४ शताब्दी में जब नाग वंश और गुप्त वंश का उड़ीसा के केउँझर जिले में राज्य हुआ तो कलिंग में जैनधर्म पुन: निरन्तर गतिशील हो गया। केउँझर जिले के Asanpata अभिलेख से ज्ञात होता है कि वहाँ नागवंशी महाराजा शत्रुभंज ३८ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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