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यद्यपि उस समय ब्राह्मण, बौद्ध धर्म भी कलिंग में मान्य थे लेकिन सर्वश्रेष्ठता के गौरव जैन धर्म को प्राप्त था । खारवेल का यह जैनधर्म को सब से बड़ा अवदान और सम्मान जैनधर्म को राष्ट्रीय धर्म बनाना था।
कलिंगजिन कलिंग की प्रतिष्ठा और गौरव पूर्ण वस्तु थी। जिसे मगध का राजा महापद्म नन्द युद्ध विजय के प्रतीक स्वरूप मगध अपने साथ ले गये थे। दो सौ बर्षों में खारवेल के पूर्व कलिंग का कोई ऐसा शक्तिशाली राजा नहीं हुआ था जो कलिंग जिन को वापस ला सके। यह कार्य खारवेल के लिए छोड़ दिया गया था। दूसरे शब्दों में खारवेल को अपने राजत्व काल के ८वें और १२ वें वर्ष में दो वार मगध पर आक्रमण कर कलिंग जिन को वापिस कलिंग लाने का कार्य करना पड़ा था। मंचूरी गुम्फा के बरामदा में खारवेल द्वारा कलिंग जिन की सपरिवार पूजा करने का दृश्य चित्रित किया गया है। ऐसा प्रतीत होता है कि जब राजा खारवेल कलिंगजिन को वापिस लाये थे और उनकी पुन: प्रतिष्ठा सोल्लास पूर्वक पिथंड नामक उस पवित्र स्थल पर की गई थी। जहाँ पर पहले भी उक्त कलिंगजिन स्थापित थे। लेकिन नन्द राजा द्वारा मगध ले जाने के कारण किसी विधर्मी राजा ने उस पर अधिकार कर लिया था। राजा खारवेल ने उस राजा को परास्त कर पिथंड को पुन : शुद्ध करने के लिए गधों से जुतवाया था। गधों से जुतवाने का कारण भावनात्मक चिन्तन था। वृषभ (बैल) आदिनाथ तीर्थंकर का चिन्ह था। वृषभ से जुतवाने पर उनकी अवमानना, अनादर और अश्रद्धा होती, इस लिए खारवेल ने उक्त स्थान को गंधों से जुतवाया था।
उक्त प्रसंग खारवेल का जैनधर्म के प्रति दृढ़ता एवं समर्पण का परिचायक है। जैन मोनुमेंटस में आर. पी. महापात्र ने कहाभी है । "The use of asses in place of Bulls.... Kharvela was a devotee of Rsabhanath bull has been spiritually associated wiht the representation Rsabhanath."
सम्राट होने के ९ वें वर्ष में राजा खारवेल ने जैनधर्म के संवर्धन, संरक्षण और सम्प्रसारण के कार्य प्रारम्भ कर दिये थे। उस समय मथुरा जैनधर्म का गढ़ माना जाता था। उस पर किसी यवन राजा ने सम्भवत: डिमित ने अधिकार कर लिया था। अब वह मगध को भी जीतने के लिए सान्निध्य था । वह सेना लेकर राजगृही पर चढ़ाई करने के
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