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लेकिन खारवेल इस विजय से संतुष्ट नहीं हुए थे। लेकिन वे उत्साहित जरूर हुए होगें। यही कारण है कि अपने शासन के चौथे वर्ष में उन्होंने पुन: विन्ध्याचल के जंगलों में रहने वाले विद्याधर जाति के राजाओं को संगठित कर, पुन: सातकर्णी पर आक्रमण किया था। रथिक और भोजक राजाओं ने सामना किया किन्तु वे परास्त हो गये। उन्होंने उनके राजत्त्व सूचक मुकुट और राजछत्र को छीन लिया और अपने चरणों की उनसे पूजा करबाई। का भी है: “तथा चवुथे वसे... वितध मुकुट स.... निखित छत भिंगारे हित रतन सापतेये सव रधिक भोजके वंदापयति ...।" पंक्ति६ . उपर्युक्त दूसरे युद्धभियान के आधार पर कहा जा सकता है कि इस युद्ध में १. राजा खारवेल की बहादुरी और सूझबूझ प्रकट होती है। जिस कारण पश्चिमी राज्यों पर अपना अधिकार जमाने की उनकी महात्वाकांक्षा सफल हो सकी। २. हाथीगुम्फा शिलालेख की उस पंक्ति में राजा सातकर्णी का उल्लेख नहीं हुआ है, लेकिन एन.के.साहु ने अपनी अंग्रेजी कृति खारवेलपृष्ठ - ७७-७८ में माना है कि उस समय सातकर्णी की मृत्यु हो गई थी और राजकुमार छोटे-छोटे थे। इसलिए विधवा रानी के आदेश से उनके मित्र राजा रथिक और भोजक ने खारवेल का सामना किया था। ३. इस युद्ध का परिणाम यह हुआ कि जहाँ एक और सातवाहन राजवंश की शक्ति क्षीण हुई, वहीं दूसरी ओर चेदिवंश के राजा खारवेल की राजनैतिक शक्ति में वृद्धि हुई। इससे उसका उत्साह और बढ़ गया। मगध देश पर आक्रमण :
कलिंग और मगध देश परम्परागत दुश्मन थे। ई. पू. चौथी शताब्दी में मगध का राजा नन्द कलिंग की इष्ट पूज्यनीय मूर्ति कलिंग जिन का अपहरण कर अपने देश मगध ले गया था। इसे छीनने के लिए राज़ा खारवेल ने उस पर दो बार आक्रमण किये थे। पहला आक्रमण अपने राजा होने के ८वें वर्ष अथात् ३२ वर्ष की आयु में
और दूसरा आक्रमण पहले आक्रमण के चार वर्ष पश्यात् अर्थात् राजा बनने के १२ वें वर्ष में और ३६ वर्ष की आयु में उतर पथ के राजाओं पर विजय करके वापिस आते समय पहला आक्रमणं विशाल सेना के साथ किया था। राजगिरि (राजगृह)
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