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चेदिवंश के अन्य राजा अर्थात् खारवेल के पूर्वज भी जैन थे। क्योकि ई.पू ४थी शताव्दी में जब नन्द राजा ने कलिंग पर आक्रमण किया था, उस समय कलिंग में कलिंग जिन अर्थात् आदिनाथ की पूजा होती थी और वे कलिंग जिन को अपने साथ मगध ले गये थे। कलिंग जिन के अभाव में कलिंगवासी उस वेदी की, जहाँ कलिंग जिन विराजमान थे, पूजा किया करते थे। इससे सिद्ध होता है कि खारवेल के पूर्वज जैन धर्म के अनुयायी थे और जैन धर्म खारवेल को विरासत में मिला था। के. पी. जायसवाल ने बिहार एण्ड उड़ीसा रिसर्च सोसाइटी पत्रिका ३/४४८ में कहा भी है “शैशुनागवंश के नन्दिवर्धन अर्थात् राजा नन्द के समय में जैन धर्म उड़ीसा में प्रवेश कर चुका था। खारवेल के समय के पूर्व उदयगिरि पहाडी पर अर्हतों के मंदिर थे।" चिमनलाल जैचंद शाह भी उत्तर भारत में जैन धर्म (पृष्ठ १२६) में लिखते है। उडीसा में जैन धर्म प्रवेश होकर अंतिम तीर्थकर महावीर के निर्वाण के १०० वर्ष पश्चात् ही जैन धर्म वहाँ का राज धर्म वन गया था। यह सब इस शिलालेख से प्रमाणित होता है। उक्त कथन से भी यही सिद्ध होता है कि खारवेल के पूर्वजों के समय में जैन धर्म प्रचलित धर्म था, जो खारवेल को जन्म से मिला था। नवीन कुमार साहु ने भी अपनी कृति खारवेल (पृ.४७ में) लिखा है: "He was a Jaina by birth and not a convert like Ashoka." ई.पू. ८वीं शताब्दी में भगवान् पार्श्वनाथ के समय में करकण्डु कलिंग के राजा थे। वे जैन धर्म मानने वाले कलिंग के शायद प्रथम राजा थे। खारवेल के पूर्वजों के पहले से ही जैन धर्म कलिंग में व्याप्त था। अत: खारवेल का जन्म जैन कुल में हुआ था। यवन (मुसलमान) राजा डिमित ने जैन धर्म का गढ़ और सिद्ध तीर्थ माने जाने वाले मथुरा पर अधिकार कर लिया था और जैन धर्म के दूसरे क्षेत्र मगध पर आक्रमण करने वाला था, उस समय खारवेल ने उसे भारत से वाहर भगाकर जैन धर्म के सच्चे पुजारी होने का प्रमाण दिया था। कहा भी है कि सनत सेन
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