Book Title: Sramana 2003 10
Author(s): Shivprasad
Publisher: Parshvanath Vidhyashram Varanasi

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Page 16
________________ दिगम्बर जैन जातियाँ : उद्भव एवं विकास __ श्रीमती कुसुम सोगानी* __ जैन धर्म की भांति जैन समाज भी अनेक उतार-चढ़ावों से गुजरा है। अनेक बार इतर जैनों को यह भ्रम उत्पन्न हो जाता है कि जैन कोई जाति है। जबकि वास्तविकता यह है कि जैन जाति न होकर एक धर्म है जिसे किसी भी जाति का व्यक्ति स्वीकार कर सकता है। जैन धर्म के प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव ने जैन धर्म के अनुयायियों को तीन वर्षों में विभाजित किया था एवं तत्पश्चात् उन्होंने चार वर्णों की अवधारणा को स्वीकृति प्रदान कर दी थी। वैदिक वर्ण व्यवस्था ने ही कालान्तर में जाति प्रथा का रूप धारण कर लिया था। जैन धर्म ने प्रारम्भ से ही वर्ण व्यवस्था को स्वीकार किया था, यही कारण है कि ये अनेक जातियों में बंटे हुए हैं। २३वें तीर्थंकर पार्श्वनाथ ने जैन धर्म में जाति व वर्ण के नाम पर कोई विभाजन नहीं किया था। इसके स्थान पर जैन धर्मानुयायियों के आचार-विचार में शुद्धता बनाए रखने के ध्येय से समाज का चार वर्गों में वर्गीकरण किया था। महावीर स्वामी ने भी इसी नीति का पालन किया। भारतीय समाज की मुख्य धारा वैदिक रही है जो आगे चलकर सनातनी हिन्दू संस्कृति के रूप में विकसित हुई। यूं समन्वित रूप में भारतीय संस्कृति एक है किन्तु वैदिक काल से ही भारतीय समाज वर्ण व जाति आधारित रहा है। अत: भारत में वैदिक धर्मावलम्बियों के अतिरिक्त फल-फूलने वाले धर्मों में जाति-प्रथा का समावेश किसी न किसी रूप में हुआ है। जैन धर्म में जाति प्रथा का प्रचलन कई रूपों में है। जैन जातियों में आपस में खान-पान व वैवाहिक सम्बन्धों का निर्धारण जैन समाज में विद्यमान जातीय आधारों पर होता है। जातीय आधारों पर दिगम्बर जैनों में भारी बिखराव है किन्तु धार्मिक सूत्र ने उन्हें एकताबद्ध कर रखा है। जाति और सम्प्रदाय केवल सामाजिक मुद्दे ही नहीं हैं बल्कि ये सांस्कृतिक व दार्शनिक मुद्दे भी हैं। जैसा कि विदित है कि जैन धर्म दो प्रमुख सम्प्रदायों क्रमश: दिगम्बर व श्वेताम्बरों में विभाजित है। किन्तु दिगम्बर जैन समाज पुनः दो प्रमुख उपसम्प्रदायों - क्रमश: बीसपंथी व तेरहपंथी - में बंटा हुआ है। जैन सम्प्रदाय के अनुयायियों में संघ भेद भी व्याप्त है। संघ भेद से अधिक व्यापक जाति प्रथा जैन समुदाय में अधिक महत्व रखती है किन्तु जाति प्रथा के बारे में यह माना जाता है कि साधु - साध्वियों के संघ, गण एवं गच्छों में विभाजन से समस्त जैन समाज भी जातियों एवं उपजातियों में विभाजित हो गया। * शोधार्थी, २/२ पारसी मोहल्ला, छावनी, इन्दौर (म०प्र०) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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