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४० : श्रमण, वर्ष ५४, अंक १०-१२/अक्टूबर-दिसम्बर २००३
की प्रक्रिया के विद्युत बल्ब जलने के समान, उपयोग करते हैं। वे तो दूध के उपयोग का भी विरोध करते हैं - वेगन सोसायटी इसका उदाहरण है। ये पुष्पादि विभिन्न धार्मिक एवं सामाजिक कार्यों में गरिमा लाते हैं। इनके सुवासित अवस्था में तोड़ने में भी हिंसन तो होता ही है। इनके समान ही, कंद-मूल पदार्थों की उपयोगिता भी शारीरिक स्वास्थ्यसंरक्षण और संवर्धन में विशेष है क्योंकि इनमें ऐसे घटक होते हैं जो शरीर की रोगप्रतिकार क्षमता बढ़ाते हैं और रुग्ण को निरोग बनाने में सहायक होते हैं, विषमय कृमियों एवं जीवाणुओं को नष्ट करते हैं। उदाहरणार्थ, प्याज में एलिल-प्रोपिल डाइसल्फाइड, अनेक लवण एवं विटामिन, लहसुन में डाइ-एलिल एवं एलिल-प्रोपिल सल्फाइड, अदरक-सोंठ में अनेक खनिज तथा औषधीय तैल, हल्दी में कर्युमिन तथा सूरणकंद में कैलसियम ऑक्जेलेट तथा आलू में सुपाच्य शर्करा के समान अनेक दोषनिवारक घटक होते हैं।२२ यदि जीवन एवं स्वास्थ्य रक्षण के प्रक्रमों के निमित्त किये जाने वाले अल्पमात्रिक हिंसन को मान्यता न दी जावे, तो कृषि-कर्म और उसके अधिहिंसा-मूलक उत्पादों का आहरण-उपभोग भी सर्वाधिक प्रतिबंधित होना चाहिये। यही नहीं, कोई भी सांसारिक प्राणी के श्वासोच्छास, भोजन का चयापचय, आहार, संभोग आदि सभी कार्यों में असंख्यात करोड़ सूक्ष्म जीवों (सूत्रप्राभृत, गाथा २४)२२, पर्याप्त स्थावर और अन्य जीवों की हिंसा होती है। इसीलिये पुरुषार्थसिद्धिउपाय, श्लोक ७६-७७ में कहा गया है कि गृहस्थ को अपने जीवन में त्रस-हिंसा का त्याग अवश्य करना चाहिये, स्थावर हिंसा में तो वह असमर्थ ही होगा।२४ वह उसके लिये अनिवार्य है। साधु भी इससे नहीं बच सकते। हां, स्थावर हिंसा का भी अल्पीकरण करने का प्रयत्न करना चाहिये। वस्तुत: सचित्त के अचित्तीकरण में भी हिंसा है, फिर भी आत्महित एवं परहित की दृष्टि से उसे उपेक्षणीय माना गया है और ऐसे व्यक्ति को दयालु तक कह दिया गया है।२५
इस दृष्टि से, कंद-मूलों के उखाड़ते समय उनसे चहुं ओर सहचरित सूक्ष्म या स्थूल जीवों के हिंसन की पाप-बंधकता पर विचार करना चाहिये। इस संबंध में यह अनुमान करना चाहिये कि ये जीव भूतल में ही रहते हैं और भूतल का वातावरण भी उनकी सजीवता में सहायक बना रहता है एवं कंद-मूलों को उखाड़ने के बाद भी बना रहेगा। फलत: इस आधार पर जितनी हिंसा की बात की जाती है, उससे आधी भी होगी, यह विचारणीय है। वैसे तो जैन आचार्य अपने वर्गीकरण-विशेषज्ञता एवं गणितीय प्ररूपणों के लिये प्रसिद्ध हैं, पर हिंसा-अहिंसा की चर्चा करते समय वे उसकी परिमाणात्मकता के प्रति मौन ही रहे। संभवत: वे भावों या परिणामों की गणितीयता में निष्णात न हो पाये हों। फिर भी वे अत्यंत चतुर थे, जीवन के रक्षण और धार्मिक कार्यों के लिये उन्होंने 'सावद्यलेशो बहुपुण्यराशि'२६ कहकर तीन प्रकार की हिंसाओं के पाप को, आत्महित तथा परहित साधन के लिये, दुर्बल बना दिया। आत्मरक्षण या परहित की इच्छा में संकल्प का अभाव-सा मानकर उसके कारण होने वाली तीन
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