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४८ : श्रमण, वर्ष ५४, अंक १०-१२/अक्टूबर-दिसम्बर २००३
५. शिक्षाव्रती एवं सचित्त त्याग प्रतिमाधारी के विपर्यास में, सामान्य जन या पाक्षिक श्रावक पर उपरोक्त आहार नियम प्रयुक्त नहीं करने चाहिये क्योंकि उनका जीवन क्रम इनसे विपरीत दिशा में गतिशील होता है अत: वे सचित्त और अचित्त-दोनों कोटि के प्रत्येक और साधारण वनस्पतियों को अपने आहार में ले सकते हैं। तथापि, धर्ममुखी होने के लिये उन्हें अपने व्यवसायों, संज्ञानों तथा आहार में जहां तक समझ में आये, हिंसा के अल्पीकरण का प्रयत्न करना चाहिये। सामान्य जन के लिये यही कर्म है, यही धर्म है।
वर्तमान वैज्ञानिक युग में हमें अपने प्राचीन या मध्ययुगीन आचार्यों द्वारा रचित शास्त्रों की सार्वकालिकता के लिये पणा सम्भिक्खए धम्मं की उत्तराध्ययन की उक्ति के अनुरूप समीक्षण करते रहना चाहिये जिससे हमारा जीवन प्रशस्ततर बन सके और वैज्ञानिक बुद्धिवाद के माध्यम से हम अपने विश्वास एवं भक्तिवाद को प्रबलतर बना सकें। सन्दर्भ पाठ १. आचारांग-२/१/३२५: से भिक्खूवा भिक्खुणी वा गाहावती जाव पविढे समाणे
से ज्जाओ पण ओसहीओ जाणेज्जा कसिणाओ, सासियाओ, अविदलकडाओ, अतिरिच्छच्छिण्णाओ, अव्वोच्छिण्णाओ तरुणियं वा छिवाडि अणभिक्कंताभज्जितं
पेहाए अफासुयं अणेसणिज्जं ति मण्णमाणे लाभे संते णो पडिगाहेज्जा। २. प्रज्ञापना-१ : (अ) पत्तेयसरीर-बादर-वणफ्फइकाइया दुवालसविहा पण्ण्त्ता । तं
जहा: रुक्खा ३२,३३; गुच्छा ५२; गुम्मा २४; लता १०; बल्ली ४६; पव्वग २२; तण २२; वलय १७; हरित ३०; ओसहि २६; जलरुह २८; कुहण ११ (ब) से किं साहारणसरीर-बादर-वणफ्फइकाइया?
साहारण-सरीर-बादर-वणफ्फइकाइया अणेगविहा पण्णत्ता। तं जहा : (५३नाम) ३. मूलाचार-१, २१७ : होदि वणप्फदि वल्ली रुक्खतणादी तहेव एइंदी।
ते जाण हरितजीवा जाणित्ता परिहरेदव्वा।। . ४. मूलाचार-१ :तिलतंडुलउसिणोदयं चणोदयं तुसोदयं अविद्धत्थं
अण्णं व्रहाविहं वा अपरिणदं गेव गेण्हेिज्जो।।४६३. ५. मूलाचार-२ : फलकंदमूलवीयं अणग्गिपक्कं तु आमयं किंचि।
णच्चा अणेसणीयं ण वि य पडिच्छंति ते धीरा।।८२७. जं हवदि अणिव्वीयं, णिवट्टियं, फासुयं कयं चेव। णाऊण एसणीयं तं भिक्खुं मुणी पडिच्छंति॥८२८.
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