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श्रमण, वर्ष ५४, अंक १०-१२ / अक्टूबर-दिसम्बर २००३
वासना के लिए नित्य आश्रय की अपेक्षा अथवा आश्रय विज्ञान के स्वरूप पर आपत्ति आदि युक्तियाँ वस्तुतः उक्त प्रधान युक्ति की ही पूरक हैं।
निष्कर्ष
५८ :
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१. वेदान्त और बौद्ध विचारधाराओं में वेदान्त पक्ष से ब्रह्मसूत्र ने सर्वप्रथम सयुक्तिक और खण्डनात्मक संवाद को प्रारम्भ किया ।
२. वेदान्त और बौद्ध तत्त्वचिन्तन को अद्वैत के धरातल पर लाने का सर्वप्रथम प्रयास गौड़पाद ने किया।
३. दो प्रसिद्ध अवैदिक दर्शनों (जैन और बौद्धों) की ब्रह्मसूत्र के माध्यम से समीक्षा करते हुए शङ्कर ने बौद्ध दर्शन को अपेक्षाकृत अधिक महत्त्व दिया है।
४. शङ्कर की बौद्ध दृष्टि के आधार सयुक्तिक पूर्वपक्ष, सयुक्तिक खण्डन, पारिभाषिक शब्दों के पर्याप्त उपयोग, बुद्ध के प्रति विचार आदि रहे हैं जो ब्रह्मसूत्रकार और गौड़पाद की अपेक्षा इस दृष्टि को व्यापक बनाते हैं।
५. बौद्ध दर्शन की तत्त्वमीमांसा की समीक्षा के प्रसंग में बुद्ध के प्रति शङ्कर की दृष्टि न्यायसंगत नहीं है। इस विवरण से उनका आक्रोश और पूर्वाग्रह (धार्मिक, सामाजिक व सांस्कृतिक) स्पष्ट दिखाई देता है ।
एक ओर बौद्ध तत्त्वमीमांसा की विसंगतियों के लिए बुद्ध को उत्तरदायी बनाना तथा दूसरी ओर अधिकारी-भेद का समाधान देने से ऐसा प्रतीत होता है कि बुद्ध की महत्ता के विषय में शङ्कर स्वयं में स्पष्ट नहीं हैं।
६. बौद्ध सम्प्रदायों की आंतरिक मतभिन्नता के प्रति शङ्कर की दोष-दृष्टि इसलिए उचित प्रतीत नहीं होती है कि यह प्रक्रिया वेदान्त सहित सभी दर्शन- सम्प्रदायों में विद्यमान रही है और दार्शनिक चिन्तन के विकास की स्वाभाविक प्रक्रिया है।
७. समीक्षा के लिए बौद्ध अवधारणाओं के चयन में दार्शनिक शङ्कर की दृष्टि मार्मिक व लक्ष्यभेदी रही है जो बौद्ध दर्शन में उनके गूढ़ ज्ञान को स्पष्ट करती है। ८. नित्यतावाद के सर्वथा विरोधी सिद्धान्त क्षणभङ्गवाद के खण्डन के प्रसंग में दी गई उनकी युक्तियों में अभिनव दृष्टि का अभाव प्रतीत होता है क्योंकि शङ्कर से पूर्व शून्यवाद सहित अन्य वैदिक सम्प्रदायों में भी इनसे न्यूनाधिक्य साम्य वाली युक्तियाँ मिलती हैं।
९. बौद्ध दर्शन के प्रति शङ्कर की दृष्टि बाह्य रूप से बौद्ध विरोधी होते हुए भी प्रभाव और सामंजस्य के कतिपय गंभीर तत्त्व अपनी पृष्ठभूमि में समाहित किये हुये हैं जिसके कारण उन पर 'प्रच्छन्न-बौद्ध' जैसा आरोप लगा है।
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