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वर्तमान सामाजिक सन्दर्भ में अध्यात्मवाद की चुनौतियाँ एवं जैन- दृष्टि से उनका समाधान
श्याम किशोर सिंह*
वर्तमान में अधिकांश लोग विज्ञान के बाहरी चमक-दमक से आकृष्ट हो रहे हैं, फलत: उनका दृष्टिकोण संकीर्ण एवं संकुचित होता जा रहा है। वे भौतिकवादी, यंत्रवादी और सुखवादी विचारधाराओं से अधिक प्रभावित और प्रेरित होते हुए दिखाई पड़ते हैं। वे भूल जाते हैं कि विज्ञान की भी सीमाएँ हैं। वे यह भी भूल जाते हैं कि मनुष्य केवल शरीर और मन की इकाई नहीं है, बल्कि उसका आध्यात्मिक आयाम भी है। आध्यात्मिक जीवन के प्रति उसका दृष्टिकोण इतना संकीर्ण हो गया है कि वह सेवा, त्याग, दया, परोपकार आदि उच्चतम मूल्यों की उपेक्षा कर रहा है फलतः भोगवादी संस्कृति उस पर हावी होती जा रही है। आज हम विभिन्न प्रकार के प्रदूषणों " की बातें करते हैं - वातावरण का प्रदूषण भी चिन्ता का विषय है, लेकिन सबसे गंभीर समस्या वैचारिक और सांस्कृतिक प्रदूषण की है। यही कारण है कि हम अपने देश 'की प्राचीन संस्कृति को भूलते और पश्चिम की भोगवादी आचार-विचार धारा का अंध अनुकरण करते जा रहे हैं। इसलिए जीवन के विभिन्न क्षेत्रों में तरह-तरह की विषमताएँ और विसंगतियाँ उभरती हुई दिखाई पड़ती हैं।
आज का युवा वर्ग भी अपनी प्राचीन परम्परा से दूर होता जा रहा है। उसे भी विज्ञान की उपलब्धियाँ आकृष्ट करती हैं। वह भी उद्देश्यहीनता और भोगवादी संस्कृति का शिकार होता हुआ दीख पड़ता है। वह सुखवादी दृष्टिकोण को अधिक प्रिय और लाभदायक समझने लगा है। फलतः उसका आचार-विचार भी उसी के अनुरूप हो गया है। नैतिकता और आध्यात्मिकता के प्रति उभरती संकीर्ण वैचारिक दृष्टियाँ मानव जीवन में व्याप्त विसंगतियों का एक कारण है जो निर्विवादतः हमारी आध्यात्मिक विपत्रता की सूचक है।
दुर्भाग्य की बात है कि लोग अध्यात्मवाद तथा नैतिक आदर्शवाद के सही अर्थ तक नहीं पहुँच पाते हैं और इसे रूढ़िवाद, अन्धविश्वास, पाखण्ड आदि के अर्थ में देखते हैं। अध्यात्मवाद वस्तुतः जीवन को उसकी सम्पूर्णता में देखता है तथा मनुष्य जागोडीह ३, पो०- पौड़ा, जि०- वैशाली
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* ग्राम
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