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८८ : श्रमण, वर्ष ५४, अंक १०-१२ / अक्टूबर-दिसम्बर २००३
में
में पवित्र आचार के द्वारा आत्मोन्नति करने का निर्धार दृढतर होता है। जैन पूजा भौतिक सुख की प्रार्थना नहीं की जाती ।
यद्यपि प्रचलित श्रावकाचार में द्रव्यपूजा सम्मत है तथापि तत्त्वतः वह ऐच्छिक है। श्रावकाचार को स्वीकार करते हुए इस भाग का त्याग करने पर भी सामाजिक स्थैर्य का उद्देश संपन्न होता है ।
२. श्रावकाचार से धर्मनिरपेक्षता का विकास
अब तक प्रस्तुत वर्णन से यह स्पष्ट है कि मूल श्रावकाचार धर्मनिरपेक्षता के आदर्श से मिलता जुलता है। श्रावकाचार की सामयिकता निरंतर बढ़ती दिखाई देती है। सैद्धांतिक समर्थन जो भी हो, अणुव्रतों का पालन पूरे समाज के लिए हितकारक है। जहां धर्मों की तथा सांस्कृतिक परंपराओं की विविधता है वहां भी यह आचार संहिता सब के लिए समान रूप से ग्राह्य है।
जैन श्रावकों के लिए मद्य, द्यूत, मांस, पांच प्रकार के उदुंबर (उदा० अंजीर ), शहद, रात्रिभोजन तथा कुछ कंदमूल जिन पर कई अंकुर होते हैं, निषिद्ध हैं। पानी छान कर पीना भी श्रावकाचार में शामिल है। मद्य एवं द्यूत का कभी किसी धार्मिक आचार में समर्थन नहीं किया गया। प्रायः सभी सभ्यताओं में इन का निषेध ही किया गया है। इन के बारे में आधुनिक धर्मनिरपेक्ष समाजों में भी निषेधात्मक कानून बने हैं। यदि मद्य जैसे नशीले पदार्थों और द्यूत का त्याग व्रत के रूप में लिया गया तो वह अधिक परिणमी ढंग से कार्यान्वित होगा। उदुंबर फलों में परागण करने वाले कीट होते हैं यह वैज्ञानिक तथ्य है। यदि कोई स्वेच्छा से उदुंबर फलों और शहद का त्याग करे तो उस पर किसी को आपत्ति नहीं हो सकती । पानी छान कर पीना तो स्वास्थ्य के लिए अच्छा है। आधुनिक तरीके अपना कर इस व्रत का पालन करना सभी के लिए हितकारक है। आधुनिक आयुर्विज्ञान का मानना है कि मांसाहार से शाकाहार श्रेष्ठ है। फिर भी अन्नपान के विधि-निषेध सामाजिक एवं प्रादेशिक विविधता पर निर्भर हैं। इस विषय में पूरे देश में सब का आचार एकरूप होने की संभावना वर्तमान में नहीं है। अतः धर्मनिरपेक्ष समाज में मांसाहार के पूर्ण निषेध का नियम अव्यवहार्य है। आशा है कि भविष्य में स्वेच्छा से अधिक से अधिक लोग शाकाहार की ओर झुकाव दिखायेंगे और तब मांसाहार की प्रथा लुप्त होगी।
दार्शनिक सिद्धांत एवं उन पर आधारित आचार नियम परिपूर्ण और अपरिवर्तनीय मानने के कारण जैन श्रावकाचार में भी कुछ तर्कहीन बातें रह गयी हैं । २४ कोई सिद्धांत या नियम त्रिकालबाधित नहीं माना जाता। यदि किसी प्रस्थापित वैज्ञानिक सिद्धांत के विपरीत विश्वसनीय प्रमाण मिलता है तो उस सिद्धांत को निःसंकोच त्याग दिया जाता
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