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श्रमण, वर्ष ५४, अंक १०-१२/अक्टूबर-दिसम्बर २००३
इसी शाखा के उदयराज नामक श्रावक द्वारा वि०सं० १६६६ में रचित भजनसवैया और वि०सं० १६७६ में रचित गुणबावनी ये दो कृतियां मिलती हैं। गुणबावनी की प्रशस्ति में उन्होंने स्वयं को भावहर्षसूरि का प्रशिष्य और भद्रसार का शिष्य बतलाया है :
खरोनाम गुरराज, खरो मत अक खरतर, खरो धर्म निरारंभ, खरइ आचार रही , खरी जोग साधना, खरउ कहीयउ सहु किज्जइ, सद्गुरू भावहरष ची, आंण दांण सिर परि धरइ, जांजाल अवर उदयराज कहि, श्रीभद्रसार समरण करइ। ।।५४।। अचल समुद्र धू अचल, अचल महि मेरु समग्गल, अचल सूर शशि अचल, अचल कूरम पृथवीतल, अचल दीह नई राति, अचल दगपाल दशे ही, अचल गयण आकाश, अचल धन मोर सनेही, गिर आठ अचल ब्रह्मा विशन, इस अचल जां लगि इला, उबैराज अचल तां बावनी, गुण प्रकाश चढती कला। ॥५५॥ रस मुनि वर सिस (शशि) समइ, करी बावन्न पूरी, वइसाखी पूर्णिमा वशंत रिति वाइ सजूरी, बबेरइ आवीया काज रतनइ रिण मोडइ, लांखाणी लोडीये तथि थंभाया घोडइ, उदइराज तेपि गुणबावनी संपूरण कीधी चाहवाण रांण नृप शोवनगिरि, वसा, वाशि जगनाथरइ। ॥५६॥
विद्याविलासचौपाई (रचनाकाल वि०सं० १६६२) के रचनाकार आनन्दउदय ने अपनी उक्त कृति की प्रशस्ति में अपने गुरु के रूप में जिनतिलक का उल्लेख किया है।
चंपकचरित्र के कर्ता जिनोदयसूरि ने अपनी रचना की प्रशस्ति में भावहर्षसूरि को अपना पूर्वज बतलाते हुए अपने गुरु-परम्परा दी है, जो इस प्रकार है :
भावहर्षसूरि जिनतिलक जयतिलक जिनोदयसूरि (वि०सं० १६६९ में चंपकचरित्र के रचनाकार)
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