Book Title: Sramana 2003 10
Author(s): Shivprasad
Publisher: Parshvanath Vidhyashram Varanasi

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Page 93
________________ जैनों की नास्तिकता धर्मनिरपेक्ष समाज का आदर्श : ८७ ढंग से प्रस्थापित किये। शंकराचार्य ने जैन और बौद्ध दर्शनों को वेदविरोधी नास्तिक दर्शन कह कर उन संप्रदायों पर शास्त्रार्थों में कठोर तात्त्विक प्रहार किया। उनके पश्चात् वेदांत दर्शन का समर्थन करने वाले रामानुजाचार्य तथा पूर्णप्रज्ञ जैसे दार्शनिकों ने भी जैन एवं बौद्ध दर्शन का खंडन जारी रखा। फलस्वरूप वैदिक धर्म का कांडत्रय (श्रौत कर्म, ज्ञान मार्ग तथ उपासना योग) बहुसंख्य लोगों ने अपनाया। अपने को उच्च वर्ण का दिखाने के लिए कुछ हद तक ब्राह्मणों का अनुकरण करते हुए जैनों ने अपना नास्तिकता का 'कलंक' मिटाने का प्रयास किया। नियम से रोज पूजा करना, यज्ञोपवीत, पुंड्रधारण आदि बाह्य आडंबर अपनाकर खुद को उच्च वर्ण का दिखाने का उन्होंने प्रयत्न किया। _पूजा के दो प्रकार हो सकते हैं - १. भावपूजा (मन में ईश्वर के या आदर्श पुरुषों के उन्नत गुणों का मनन एवं अपने जीवन में उनका अनुकरण) तथा २. द्रव्यपूजा (भक्ति भाव से ईश्वर की स्तुति करना और उसके प्रतीक विग्रह, लिंग, शालिग्राम या चित्र को पुष्प, दीप, नैवेद्य आदि समर्पित करना। वैदिक परंपरा में द्रव्य पूजा को अधिक महत्त्व दिया गया है। यद्यपि जैनागम में ईश्वर का अस्तित्व स्वीकृत नहीं है तथापि नियम से आदर्श पुरुषों की स्तुति, सेवा आदि करना आत्मोन्नति के लिए पोषक माना गया है। प्राचीनतम श्रावकाचार में सामायिक का प्रावधान था।२१ आदर्श पुरुषों के (तीर्थंकरों के) गुणों का मनन और उनके अनुकरण द्वारा आत्मोन्नति की साधना के लिए नियम से किया जाने वाला ध्यान ही सामायिक है। धीरे-धीरे वैदिक परंपरा का अनुकरण करते हुए श्रावकाचार में चैत्यवंदना का समावेश किया गया। इस प्रकार जैनों में मूर्तिपूजा की परंपरा प्रस्थापित हुई। संभवत: मूल जैनागम में मूर्तिपूजा का प्रावधान ही नहीं था। अब भी मूर्तिपूजा रहित जैन संप्रदाय हैं। तीर्थंकरों की मूर्ति बना कर उस की द्रव्यपूजा करना वैदिक धर्म के आदर्शों की ओर जैन समाज का झुकाव दर्शाता है। फिर भी अपने मूल सिद्धांत से समन्वय करने के लिए उन्हें मूर्तिपूजा का समर्थन करना पड़ा। निरीश्वर सिद्धांत के अनुसार मूर्ति पूजा का अर्थ क्या है? तीर्थंकर तो अब इस लोक में नहीं हैं। उनकी आत्माएं लोकाग्रस्थित सिद्धलोक में हैं। तो जड़ वस्तु से बनी प्रतिमा की पूजा सिद्धांत से विसंगत नहीं? सिद्धांत के अनुसार ऐहिक (भौतिक) फल ईश्वर की या जिनबिंब की कृपा से नहीं मिलता। जीवों के सुख-दु:ख अपने अपने कर्म से निर्धारित होते हैं। जैनों ने वैदिक आचार का अनुकरण करते हुए भी मूल सिद्धांत का त्याग नहीं किया। थोड़ा बहुत समझौता जरूर करना पड़ा है किंतु सिद्धांत से विसंगत आचार को स्वीकार नहीं किया। जैन पूजक की भूमिका वैदिक परंपरा की धारणाओं से भिन्न है।२२ जिनबिंब की पूजा आत्मोन्नति के लिए प्रेरणा के रूप में ली गयी है। जिनबिंब को पूजा द्रव्य (हिंसा रहित फूल, फल तथा अन्य खाद्य पदार्थ) समर्पित किया जाता है लेकिन प्रसाद के रूप में कुछ भी लिया नहीं जाता।२३ श्रावक चैत्यालय में द्रव्य का त्याग करने जाते हैं। जिनमंदिर से लौटने वालों के मन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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