Book Title: Sramana 2003 10
Author(s): Shivprasad
Publisher: Parshvanath Vidhyashram Varanasi

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Page 96
________________ ९० : श्रमण, वर्ष ५४, अंक १०-१२/अक्टूबर-दिसम्बर २००३ ६. प्राणातिपातवितथ-व्याहारस्तेयकाममूर्छाभ्यः। स्थूलेभ्य: पापेभ्य: व्युपरमणमणुव्रतं भवति।। आचार्य समंतभद्रकृत रत्नकरंडश्रावकाचारः ५२, हिंदी (ढुंढारी) टीकाकार - पं० सदासुखदासजी कासलीवाल; हिन्दी रूपांतरकार - मन्नूलाल जैन, श्री वीतराग विज्ञान स्वाध्याय मंदिर ट्रस्ट, अजमेर १९९६ ई०। ७. “प्रमत्तयोगात् प्राणव्यपरोपणं हिंसा' तत्त्वार्थसूत्र, अध्याय ७, सूत्र ८; संदर्भ - टिप्पणी ५ में। और यह भी - संकल्पात्कृतकारितमननाद्योगत्रयस्यचरसत्त्वान्। न हिनस्ति यत्तदाहुः, स्थूलवधाद्विरमणं निपुणा:।। रत्नकरंडश्रावकाचार, श्लोक ५३ संदर्भ टिपणी संदर्भ ६ में।। ८. भारत में प्रचलित कानूनों का संग्रह - Menaka Gandhi, Ozair Husain & Raj Panjwani, Animal Lawas of India, Universal Law Publishing Co, Delhi 1996 A.D. ९. श्रीमदमृतचन्द्रसूरिविरचितः पुरुषार्थसिद्ध्युपाय मूल संस्कृत (कन्नड लिपि में), तथा कन्नड भावार्थ; ले० एर्गुरु शांतिराज शास्त्री; पं० ए० शांतिराज शास्त्री ट्रस्ट, बैंगलोर १९९७ ई०। १०.संदर्भ टिप्पणी ९ में। निसर्ग में शाकाहारी तथा मांसाहारी जानवरों की संख्या का अनुपात नैसर्गिक नियमों से ही स्थिर रहता है। इस में मानव द्वारा हस्तक्षेप की जरूरत नहीं है। ११. स्थूलमलीकं न वदति न परान् वादयति सत्यमपि विपदे। यत्तद्वदंति संत: स्थूल मृषावादवैरमणम्। रलकरंडश्रावकाचार, श्लो० ५५। संदर्भ टिप्पणी ६ में। १२. तत्त्वार्थसूत्र, अध्याय ७, सूत्र १०; संदर्भ टिप्पणी ५ में। १३.जो बह-मल्लं वत्यं अप्पय-मल्लेण णेव गिण्हेदि। वीसरियं पि ण गिण्हदि लाहे थोवे वि तूसेदि। कार्तिकेयानुप्रेक्षा, ३३५. मूल प्राकृत (कन्नड लिपि में), कन्नड भावार्थ, ले०ए० शांतिराज शास्त्री; पं०ए० शांतिराज शास्त्री ट्रस्ट बैंगलोर १९९७ ई०। १४. भुक्त्वा परिहातव्यो भोगो भुक्त्वा पुनश्च भोक्तव्यः। उपभोगोऽशनवसन प्रभृति: पंचेंद्रियो विषयः॥ रत्नकरंडश्रावकाचार, श्लो० ८३; संदर्भ टिप्पणी ६ में। आधुनिक अर्थशास्त्रीय शब्दावली में भोग वस्तुएं consumables तथा उपभोग वस्तुएं consumer durables हैं। १५.दुर्भिक्ष अर्थात् सूखा, अकाल, बाढ़ आदि विपत्तिकाल में अधिक फायदा कमाने के लिए अन धान्य जैसी भोग वस्तुओं का संग्रह करना पाप है। यह अति संग्रह Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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