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: श्रमण, वर्ष ५४, अंक १०-१२ / अक्टूबर-दिसम्बर २००३
सल्लेखना व्रत - अब तक वर्णित पांच अणु व्रतों में सल्लेखना व्रत का समावेश नहीं है। १७ फिर भी न केवल श्रमणों के लिए अपितु श्रावकों के लिए भी यह एक आदर्श व्रत के रूप में प्रस्तुत किया गया है। जन्म एवं मृत्यु जीवन रूपी सिक्के के दो पार्श्व हैं। जन्म होने पर मृत्यु अवश्य आती है। यह शाश्वत सत्य होते हुए भी मृत्यु का भय सब के मन में अवश्य होता है। वृद्धावस्था में अशमनीय रोगों की यातना सहन करते हुए जीवन के अंतिम दिन व्यतीत करने से मृत्यु को एक नैसर्गिक प्रक्रिया के रूप में सहर्ष स्वीकारना धार्मिक जीवन का श्रेष्ठतर आदर्श है। जैन चिंतकों ने इसे सल्लेखना व्रत कहा है । १८ योग्य समय आने पर अन्न-पान की मात्रा क्रमशः कम करते हुए निर्मल चित्त से मृत्यु स्वीकारना आदर्श जीवन का अंत माना गया है। अनेक श्रमणों तथा श्रावकों ने सल्लेखना व्रत से देहत्याग किया है जिसका उल्लेख जैन साहित्य में मिलता है । १९ आधुनिक प्रगतिशील विचारधारा में यद्यपि स्वर्ग, मोक्ष जैसी प्राचीन दार्शनिक कल्पनाएं मान्य नहीं हैं तथापि दूसरों को कष्ट देते हुए, इलाज के लिए पारिवारिक संपत्ति का व्यर्थ व्यय करते हुए तथा स्वयं यातनाओं का अनुभव करते हुए अति दीन अवस्था में अंतिम दिन बिताने की अपेक्षा स्वाभिमान के साथ प्राण त्यागना अधिक श्रेयस्कर माना जाता है। आधुनिक काल में उपोषण करते हु किसी आदर्श के लिए प्राणत्याग करने वालों के उदाहरण बहुत कम हैं। तथापि आयुर्विज्ञान के ऐसे तरीके उपलब्ध हैं जिन्हें अपना कर प्राणत्यागं करना कठिन नहीं है। इसे स्वेच्छामरण (सदय प्राणमोचन, euthanasia ) कहते हैं । हालैंड एक मात्र ऐसा देश हैं जहां इसे कानूनी अनुमति है। यद्यपि भारत सहित अन्य देशों में भी इसका समर्थन करने वाले कई चिंतक हैं तथापि अब तक विधिनिर्माताओं ने इस पर पर्याप्त गंभीरता से सोचा ही नहीं। २° पिछले कुछ दशकों में भारत में लोगों की औसत आयु बढ़ी है। इसके साथ-साथ वृद्धावस्था से जुड़े रोगों में भी वृद्धि हुई है। कई लोग अशमनीय रोगों की पीड़ा सहन करने के बजाय स्वाभिमान से यातनारहित मृत्यु स्वीकारने के लिए तैयार हैं। फिर भी कानून का प्रावधान न होने के कारण यह संभव नहीं है। श्रावकाचार की सामयिकता इस संदर्भ में स्पष्ट होती है। जहां परिवार नियोजन के नाम पर भ्रूण हत्या का भी प्रावधान है वहां सोच समझ कर अपनायी गयी इच्छा के सामने कानूनी अवरोध है इससे अधिक विडंबना क्या हो सकती है ?
ग. श्रावकाचार में पूजा का समावेश
श्रावकाचार के वर्णन से यह स्पष्ट होता है कि निरीश्वरवादी होने के बावजूद जैन उन्मुक्त दुर्व्यवहार करने वाले नहीं हैं। फिर भी सामान्य लोगों का दुराग्रह मिटाना कठिन होता है। भारत में समय समय पर वैदिक धर्म को पुनरुज्जीवित करने के प्रयास किये गये हैं । ईसा की ९वीं सदी के आरंभ में शंकराचार्य ने अपने अद्वैत मत का प्रचार किया। उन्होंने पूरे देश में भ्रमण करते हुए शास्त्रार्थों में अपने विचार प्रभावी
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