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श्रमण, वर्ष ५४, अंक १०-१२/अक्टूबर-दिसम्बर २००३
इस व्रत का महत्त्व वर्तमान में कई गुना बढ़ा है। नीतिसम्मत मार्ग से कमाये धन पर राजस्व (टैक्स) देना सभी नागरिकों का कर्तव्य है। इस से बचने के लिए लोग कई तरीके ढूंढते हैं। दिखाने के लिए ट्रस्ट बना कर उसकी संपत्ति स्वजनों के लिए या खुद के लिए लेना पाप है। कानूनबाह्य तरीकों से धन कमा कर राजस्व की लेखा में उसे न दिखाना तो इस से भी बड़ा पाप है। प्राय: लोग ऐसे दुराचार अपना कर दंड से बचते हैं। फिर भी इस तरह के व्यवहार से सामाजिक अधोगति अवश्य होती है। ऐसे तरीकों से कमाये गये काले धन के कारण भारत की आर्थिक प्रगति कुंठित हुई है। कानून से सब अपराध रोकना संभव नहीं है। यहां धर्म (सही अर्थ में) ही तरणोपाय है। यदि पूजा-पाठ के दिखावे से परावृत्त हो कर सभी नागरिक श्रावकाचार का पालन करें तो रामराज्य का आदर्श अनुभव में अवश्य आयेगा।
३. अस्तेय व्रत - चोरी की व्यापक व्याख्या केवल दो शब्दों में दे कर उमास्वाति ने अपना उन्नत वाग्विलास दर्शाया है। “अदत्तादानं स्तेयम्' १२ अर्थात् जो किसी ने न दिया हो उसे लेना चोरी है। गाड़ कर या अन्य किसी प्रकार छिपाया हुआ, अमानत में सौंपा गया, भूल से कहीं रख कर छोड़ा हुआ परस्व लेना भी चोरी है। स्वामीकार्तिकेय ने कहा है१३ ठगी से बहुमूल्य वस्तु कम मूल्य में लेना तथा भूल से छोड़ी गयी वस्तु लेना पाप है। समंतभद्र के अनुसार दूसरों से चोरी करवाना, चोरी का धन लेना, प्रचलित कानून का उल्लंघन करते हुए धन कमाना, मिलावटी वस्तुएं बेचना तथा नाप-तौल में हेरा फेरी करना - ये सभी चोरी के प्रकार हैं। यद्यपि धंधे में 'यशस्वी' होने की लालसा से ऐसे पाप कर्म करने वाले कुछ समय के लिए कानून के शिकंजे से बच जाते हैं तथापि अंतत: दुःखी होते हैं। श्रावक धर्म के नियमों के सही पालन से ही वर्तमान समाज में क्षोभ मिट कर शांति स्थापित हो सकती है।
४. स्वदारसंतोष व्रत - इस व्रत के नाम से ही उसका अर्थ स्पष्ट होता है। आधुनिक समाज में इस विषय में शासनाधीन कानून हैं। फिर भी अधिकांश सामाजिक अपराधों का मूल कारण इस व्रत के अतिचार से ही उत्पन्न होता है। इस व्रत के अतिचार को बढ़ावा देने वाला साहित्य (अश्लील कविता, कहानी, नाटक आदि) लिखना एवं दूरदर्शन सिनेमा जैसे माध्यमों द्वारा प्रस्तुत करना एक घोर अपराध है। इसके कारण सामाजिक मूल्यों का पतन हो कर सभी प्रकार के अपराध बढ़ते हैं।
५. भोगोपभोगपरिमाण व्रत - यह जैन चिंतन की अमूल्य देन है। प्राय: जैनेतर धार्मिक आचार का उद्देश्य ऐहिक संपत्ति, भोग-विलास तथा अंत में स्वर्ग आदि काल्पनिक सुख है। धन की देवी लक्ष्मी की कल्पना इसी मानसिकता से उत्पन्न हुई है।
___ किसी भी वस्तु को प्राप्त करने में कुछ न कुछ हिंसा अवश्य होती है। इसलिए जैनाचार्यों ने वस्तुसंग्रह को यथासंभव सीमित करने का उपदेश दिया। इस व्रत के
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