________________
८० :
श्रमण, वर्ष ५४, अंक १०-१२/अक्टूबर-दिसम्बर २००३
वस्तुनिष्ठ से विचार करने पर यह स्पष्ट होता है कि दार्शनिक सिद्धांत एवं उन से विकसित आचार नियम मानवनिर्मित हैं। यद्यपि सामाजिक हित प्राप्त करने के लिए निर्दिष्ट नियम समाज के विकास तथा परिवर्तनों के अनुसार समय-समय पर बदलने पड़ते हैं तथापि वे आस्तिक और नास्तिक विचारधाराओं के लिए अलग नहीं हो सकते। सभी नागरिकों के लिए दंडसंहिता, विवाहबंधन से उत्पन्न दायित्व, पैतृक संपत्ति पर अधिकार आदि शासनाधीन नियम समान होने चाहिए। इस के विपरीत देवतानुग्रह से भौतिक एवं आध्यात्मिक सुख प्राप्त करने के उपाय दार्शनिक सिद्धांतों के अनुसार कई प्रकार के हो सकते हैं। नास्तिकों के लिए इन आचार नियमों की जरूरत नहीं। स्पष्ट है कि शासनाधीन नियम ऐसे हों कि वे सभी समुदायों के लिए समान हों, अर्थात् वे धर्मनिरपेक्ष (सेक्युलर) नियम हों।
कुछ लोग समझते हैं कि धर्मनिरपेक्ष शासन में विभिन्न धर्मों के प्रति अनादर हो सकता है और इस से क्षोभ उत्पन्न होगा। इसलिए वे सर्वधर्मसमभाव या सर्वधर्म समान आदर जैसे आदर्शों की बात करते हैं। इस से उत्पन्न संभ्रम को दूर करना होगा। आस्तिक दर्शनों में श्रद्धा का अर्थ है अपने सिद्धांत को सही तथा अन्य सभी सिद्धांतों को गलत मानना। इस से यह स्पष्ट है कि कोई सच्चा आस्तिक सभी दार्शनिक परंपराओं - के प्रति समभाव या समान आदर नहीं अपना सकता। अपने दर्शन में श्रद्धा और अन्य दर्शनों के प्रति सामाजिक व्यवहार में उदासीन भाव ही आस्तिक की स्वीकार्य नीति है। नास्तिकों का रुख तो सभी आस्तिक दर्शनों के प्रति तात्विक दृष्टि से समान अनादर है। यदि वे सामाजिक व्यवहार में आस्तिक दर्शनों के प्रति उदासीन भाव रखें तो कोई क्षोभ नहीं हो सकता। १. आचार के विभिन्न आयाम
मानव का आचार अपने-अपने दर्शन के आधार पर तीन प्रकार का हो सकता है। १. लौकिक (आधिभौतिक, सेक्युलर), २. आध्यात्मिक (स्पिरिच्युअल) तथा ३. आधिदैविक (कर्मकांडात्मक)। जिस दर्शन में ईश्वर, आत्मा, पुनर्जन्म आदि . कल्पनाएं गृहीत नहीं हैं (जैसे चार्वाक दर्शन में) उसमें आचार केवल ऐहिक व्यवहारों तक ही सीमित होता है। जैन और बौद्ध दर्शन में आत्मा, पुनर्जन्म आदि कल्पनाएं गृहीत हैं। अत: लौकिक आचार के साथ-साथ आत्मोन्नति के उपाय निर्धारित किये जाते हैं। तप, उपवास, दान, ध्यान आदि का इन में समावेश होता है। ईश्वर को प्रसन्न करने के उपाय भी आचार में समाविष्ट होते हैं। यज्ञ, पूजा, भजन आदि ईश्वर कृपा र पाने के उपाय माने जाते हैं। पुनरुक्ति करते हुए भी इस बात को दोहराना जरूरी है कि सभी दार्शनिक मान्यताओं के लिए ऐहिक सदाचार समान रूप से आवश्यक है।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org