Book Title: Sramana 2003 10
Author(s): Shivprasad
Publisher: Parshvanath Vidhyashram Varanasi

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Page 85
________________ जैनों की नास्तिकता धर्मनिरपेक्ष समाज का आदर्श : ७९ एवं अनुनय से संतुष्ट होने वाले ईश्वर का अस्तित्व आस्तिक दर्शनों में स्वीकृत है। इन धारणाओं के विपरीत विश्व की सृष्टि करने वाले, अवज्ञा से कुपित एवं स्तुति से प्रसन्न होने वाले ईश्वर का अस्तित्व नास्तिक दर्शनों में स्वीकृत नहीं है। चार्वाक दर्शन में आत्मा एवं पुनर्जन्म की कल्पना भी नहीं है। जैन दर्शन में यद्यपि आत्मा, पुनर्जन्म, पुण्य एवं पाप की कल्पना स्वीकृत है तथापि अनुनय से संतुष्ट हो कर सुख देने वाला और अवहेलना से क्रुद्ध होकर पीड़ा देने वाला सृष्टिकर्ता ईश्वर नहीं है। अतएव जैन दर्शन की गणना नास्तिक (निरीश्वरवादी) दर्शनों में होती है। आस्तिक हों या नास्तिक सभी सामाजिक स्थिरता चाहते हैं। सदाचार द्वारा समाज में शांति और सुरक्षा स्थापित करने वाली व्यवस्था ही धर्म है। अपनी-अपनी सैद्धांतिक मान्यताओं की बुनियाद पर धार्मिक आचार के मानक नियम निरूपित किये गये हैं। प्राचीन काल में जब दार्शनिक सिद्धांत निरूपित हुए तब आधुनिक विज्ञान नहीं था। केवल तर्क से ही दर्शनों का निरूपण होता था। प्रत्यक्ष और प्रयोग से प्रस्थापित ज्ञान के अभाव में तर्क के प्रवाह कई दिशाओं में चल सकते हैं। अत: अपनी-अपनी मान्यताओं के अनुसार सभी धार्मिक आचार सही माने जाते हैं। प्राय: सभी दार्शनिकों ने भी अपने-अपने सिद्धांत स्थिर एवं सदा के लिए अपरिवर्तनीय माने हैं। कोई अपने 'प्रमाण ग्रंथों में निर्दिष्ट तत्त्व को असत्य नहीं मानता। परिणामत: बौद्धिक विकास के साथ निरंतर हो रही विज्ञान की प्रगति का किसी दर्शन ने लाभ नहीं उठाया। फलस्वरूप बदलती हुई सामाजिक परिस्थितियों के अनुकूल धार्मिक आचार में परिवर्तन नहीं हुआ। व्यापार तथा आर्थिक व्यवहारों में निरंतर होने वाले बदलाव के फलस्वरूप अब किसी समाज में एक ही धर्म के अनुयायी नहीं हैं। सभी देशों में, सभी राज्यों एवं शहरों में और सभी ग्रामों में भी धार्मिक विविधता प्रस्थापित हुई है। अब इसे बदलना न ही संभव है और न ही वांछित।। ____ विविध आचार नियमों की बुनियाद अनतिक्रमणीय माने गये दार्शनिक सिद्धांत होने के कारण सभी देशों में धार्मिक गुटों का परस्पर सामंजस्य कम होता जा रहा है। फलस्वरूप हिंसात्मक संघर्ष की घटनाएं होती हैं जो सभी सामाजिक इकाइयों के लिए क्लेशकारक हैं। सामाजिक क्षोभ के कारण पूरे राष्ट्र की प्रगति कुंठित होती है। इस विपदा से छुटकारा पाने के लिए देशों ने एक धर्मनिरपेक्ष (सेक्युलर) प्रणाली अपनायी है जिस में शासनाधीन नीति-नियम सभी नागरिकों के लिए समान होते हैं। भारत के संविधान में धर्मनिरपेक्षता को मान्यता दी गयी है। यद्यपि भारत का शासन धर्म निरपेक्ष है तथापि धार्मिक गुटों में हिंसात्मक संघर्ष जारी हैं। इस संदर्भ में कई • सवाल उठते हैं। धर्मनिरपेक्षता का सही अर्थ क्या है? क्या इस विचारधारा में किसी धर्म का कोई स्थान नहीं है? क्या धर्म निरपेक्ष राष्ट्र में क्रमश: विभिन्न धर्मों का अस्तित्व ही नष्ट होगा? ऐसे कई प्रश्न हैं जिनका समाधान ढूंढ़ना पड़ेगा। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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