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जैनों की नास्तिकता धर्मनिरपेक्ष समाज का आदर्श : ८१
क) सामाजिक शांति का आधार- श्रावकाचार
यदि ऐहिक अर्थात् सामाजिक सदाचार के नियम किसी दार्शनिक श्रद्धा से विसंगत नहीं तो वे पूरे समाज में समान रूप से स्वीकृत होंगे। ऐसी व्यवस्था में कोई अपनी श्रद्धा के अनुसार दार्शनिक तत्त्वों पर आधारित पूजा, भजन आदि धार्मिक नियमों का पालन करने के लिए स्वतंत्र है। हां, यदि कोई आचार दूसरों को क्षति पहुंचाए तो उसे रोकना शासन का कर्तव्य बनता है । यदि अन्य धर्म के लोगों के पूजा स्थान या देवता की प्रतिमा नाश करने या उनको अपवित्र करने का आदेश कहीं 'धार्मिक 'कर्तव्य' के रूप में निर्दिष्ट किया गया है तो ऐसे आचार को रोकना शासन का आद्य कर्तव्य है।
क्या ऐसे कोई सदाचार के नियम हैं जो पूरे सभ्य एवं शांतिप्रिय समाज को समान रूप से मान्य हों ? उत्तर स्पष्ट है कि जैन श्रावकाचार एक मात्र धार्मिक आचार है जो लगभग ज्यों का त्यों सब को स्वीकार्य होगा। 'लगभग इस लिए कहा कि दो हजार साल पुरानी श्रद्धाओं पर आधारित कुछ नियम नये ज्ञान के संदर्भ में काल
बाह्य हो गये हैं। उनका परिष्कार करने से मूल सिद्धांत का उल्लंघन नहीं होता। वे
सबके लिए मान्य होंगे क्यों कि उन में कोई आचार किसी अन्य धार्मिक श्रद्धा से विसंगत नहीं हैं।
ख) तीन रत्न और पांच व्रत
सही दर्शन, यथार्थ ज्ञान तथा सम्यक् चारित्र - ये तीन मिल कर नि:श्रेयस् अर्थात् परमार्थ के मार्ग हैं।" इन्हीं को जैन दर्शन का रत्नत्रय कहते हैं । इस से स्पष्ट है कि दर्शन पर आधारित यथार्थ ज्ञान और तदनुसार आचरण यही परमार्थ का साधन है। जब तीर्थंकरों ने आर्हत् दर्शन का निरूपण किया उस समय द्रव्य का जीव एवं अजीव इस प्रकार वर्गीकरण यथायोग्य लगता था । उसी आधार पर उनका दार्शनिक सिद्धांत बना। उस सिद्धांत में प्रचलित धारणा के अनुसार यह माना गया कि जीव नित्य तथा मृत्यु के पश्चात् अन्यत्र शरीर धारण करते हैं। सुख एवं दुःख दोनों अशाश्वत हैं। संसार चक्र से अंतिम छुटकारा पाना और अनंत सुख (मोक्ष) प्राप्त करना ही नि:श्रेयस् है । जैन दर्शन की यह विशेषता है कि तीर्थंकरों या पश्चात्कालीन आचार्यों ने किसी प्रमाण ग्रंथ का पुरस्कार नहीं किया। तथापि उनके अनुयायी धर्मप्रचारकों ने वैदिक संप्रदाय का अनुकरण करते हुए बढ़ते हुए ज्ञान के अनुसार प्राचीन सिद्धांत में कोई परिवर्तन नहीं किया। परिणामत: यह उन्नत दर्शन भी प्रगत नहीं हो सका।
जैन श्रावकाचार की एक प्रमुख विशेषता यह है कि उस के सभी नियम सामाजिक शांति एवं स्थैर्य से संबंधित हैं । यद्यपि यह कहा गया है कि इस आचार से पाप कर्म नष्ट हो कर पुण्य बंध होता है तथापि इस प्रक्रिया को केवल श्रद्धा से
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